Monday, April 14, 2008
प्यार का नायाब तोहफा है कंघा
हाइटेक जमाने में आज जहां प्यार का इजहार करने, तोहफे देने आदि सबका अंदाज बदल गया है, वहीं उड़ीसा के सुदूर गांवों में ज भी आदिवासी जनजाति अपने परंपरागत तरीके से प्यार का इजहार करते हैं, तथा इनके तोहफों में हाथ के बने कंघे को एक नायाब तोहफा माना जाता है।
उड़ीसा के कई गांवों में आज भी आदिवासी युवक बांस की कंघियां देकर अपनी प्रेमिका से अपने प्यार का इजहार करते हैं। इसे स्वीकार करने का मतलब होता है कि युवति ने उस युवक के प्यार को स्वीकार कर लिया तथा शादी के लिए हामी भर दी है। ये कंघे खरीदकर बाजार से नहीं मंगाए जाते हैं, ब्लकि इसे वही युवक बनाता है जिसे अपनी प्रेमिका को उपहार देना होता है। ये कंघे आदिवासी कला के बेजोड़ नमूने होते हैं।
जनजातिय क्षेत्रों में हस्तकला उनके सामाजिक जरूरत से जुड़ा होता है। उनके द्वारा निर्मित सामानों का उपयोग वे दैनिक जीवन में करते हैं। इन सामानों में खूबसूरत लेम्प, कंघे, डलिया, ग्लास, खिलौने, पंखे, जेवर, खूबसूरत हेयरपिन आदि प्रमुख होते हैं। ये आदिवासी लोग कंघे को बेचा नहीं करते। यह उनकी संस्कृति से जुड़ा हुआ वह हिस्सा होता है, जिसके तार भावनाओं से जुड़े होते हैं। यहां तक कि इन क्षेत्रों में काम करनेवाली स्वयंसेवी संस्थाओं को भी इस बात की इजाजत नहीं होती है कि इन कंघों को खरीदा या बेचा जा सके। मसलन उपहार के तौर पर कभी-कभी कोई किसी को दे सकता है।
उड़ीसा में करीब 62 तरह की आदिवासी जातियां रहती हैं। लेकिन कंघे बनाने की कला मात्र 12 से 15 जातियां हीं जानती हैं। ये कंघे बांस, लकड़ी, बैल तथा भैंस की सिगों तथा लोहे के बने होते हैं। जुआंग, धारुआ, कोया, कोंध, लांजिया, साउरा, संताल आदि जातियां अपने खास अंदाज में कंघियों का निर्माण करती हैं। विभिन्न जातियों द्वारा बनाए गए इन कंघियों के डिजाइन में भी भिन्नता होती है। इस भिन्नता के जरिए आप जाति या कौम का पता लगा सकते हैं। कौम के हिसाब से इन कंघियों के उपयोग में भी थोड़ी बहुत भिन्नता पाई जाती है। लेकिन जो भी हो इसको देनेवाले युवक की भावना और प्यार की कद्र करता है पूरा समुदाय तथा लेनेवाली युवति भी। यदि युवति को युवक पसंद नहीं हो या फिर वह किसी और को पसंद कर चुकी होती है तो आदर सहित वह कंघे को उस युवक को वापस कर देती है।
बोंडा जनजाति कंघियों को अपने पर्सनल उपयोग के लिए बनाते हैं। इस जाति की औरतें कंघियों को गहने की तरह उपयोग करती हैं। घागे में बांधकर वे इसे गले में पहनती हैं, कुछ औरते इसे कंघी करने के बाद अपने जूड़े में लगाकर रखती हैं। केओनिझार जिले के गुप्त गंगा तथा गोनासिका क्षेत्रों में रहनेवाले जुआंग्स जातियां कंघे को लकड़ी,बांस के साथ प्लास्टिक की तारों से खूबसूरती के साथ बनाते हैं। वे इन्हें कट्टा कहते हैं। कुंवारे युवक इसे बड़े जतन से बनाते हैं। वे इसका उपयोग अपनी महबूबा को देने के लिए करते हैं।
सामुहिक नृत्य के दौरान आदिवासी युवक-युवति अपना जीवनसाथी चुनते हैं। जिसमें वे इन उपहारों को एक दूसरे को प्रदान करते हैं। आदिवासी समाज में छह से सात खूबसूरत डिजाइन के कंघे बनाए जाते हैं। आजकल जहां बाजार में एक से एक डिजाइन के प्लास्टिक फाइवर आदि के कंघे बने मिलते हैं वहीं परंपरागत रूप से बने कलात्मक कंघे अवसान की ओर जाते से प्रतीत होते हैं।
साबेरी नदी के तट पर बसनेवाले आदिवासी धारूआ जनजाती के लोग कंघे को बांस की पतली-पतली तिलियां बनाकर उसे सागौन के धागे से खूबसूरती से बांधते हैं तथा विभिन्न आकार और डिजाइन के कंघे तैयार करते हैं। ये अपने कंघे को न तो किसी कीमत पर बेचते हैं, और न ही अनजान आदमियों को जल्दी उपहार में देते हैं। इन लोगों का यह मानना है कि यदि इन कंघे को बेचा गया तो यो अंधे हो जाएंगे। धारूआ जनजाति के लोग कंघे बनाने में सबसे ज्यादा हुनरमंद माने जाते हैं। ये लोग कंघियों को बाल में लगाने वाले हेयरपिन की तरह भी उपयोग करते हैं। तथा इसे ककेनी कहते हैं। भूवनेश्वर से 650 किलोमीटर दूर मलकांगिरि जिले में रहनेवाले कोयास आदिवासी जनजाति के लोग भी बांस की तिलियों तथा सागौन के धागे से कंघे का निर्माण करते है, लेकिन इनके द्वारा बनाए गए कंघे के डिजाइन तथा आकार में भिन्नता पाई जाती है। ये लोग कंघे का निर्माण बड़े पैमाने पर करते हैं तथा इसको बाजार में बेचते भी हैं। कोयास जाति के लोग इन कंघे को इसाद कहते हैं। आदिवासी युवतियां इसका उपयोग गले में पहनने के साथ-साथ कान में भी टॉप्स की तरह पहनती हैं। लेकिन इन कंघों का निर्माण सिर्फ पुरुष हीं करते हैं। कान्धमकला और बेलघर इलाके में रहनेवाले कुटिया कान्दा आदिवासी लोगों के द्वारा बनाए गए कंघे छोटे तथा चिड़ियों के आकार के होते हैं। वे लोग भी इसका उपयोग अपनी प्रेमिका को उपहार देने के लिए हीं करते हैं। इस जनजाति के लोग कंघे को नकई सिरेनी कहते हैं। अधेड़ तथा बूढी स्त्रियां भी इन कंघों का उपयोग डेकोरेटिव थिंग्स की तरह करती हैं। डोंगोरिया जाति के लोग जानवरों के सिंगों से कंघे का निर्माण करते हैं। तथा इसे ककुआ कहते हैं। आदिवासी युवको द्वारा निर्मित ये कंघे उनकी कला का बेजोड़ नमूना है। कला के साथ-साथ उनकी कोमल भावनाएं भी इसमें पिरोई हुई होती हैं। जो ये अपनी प्रेमिका को अपने दिल के साथ-साथ देते हैं।
-प्रीतिमा वत्स
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आदिवासी समाजों में अभिव्यक्ति के बड़े सशक्त माध्यम होते है.
ReplyDeleteरोचक जानकारी..आभार.
ReplyDeleteछत्तीसगढ़ के जगदलपुर क्षेत्र में भी यही प्रथा प्रचलित है. वहां धातु के ढले हुए कंघे भी प्रचलित हैं. आजकल बाजार से प्लास्टिक के कंघे खरीदकर उपहार में देने लगे हैं :)
ReplyDeleteजानकारी के लिए धन्यवाद.
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