Tuesday, April 22, 2008
लोक देवी शीतला
भयानक होते हुए भी लोकदेवी शीतला अपने भक्तों की पुकार को कभी अस्वीकार नहीं करती। विष का हरण करने वाली देवी विषहरी की तरह चेचक प्रभावी देह की जलन को शीतल करने वाली मातृका शीतला की पूजा-अर्चना बिहार झारखंड के प्रायः सभी इलाकों में समान रूप से प्रचलित है।
मालवा जनपद में शीतला की जगह लालबाई एवं केसरबाई तथा राजस्थान में सेउल माता की अराधना प्रचलित है। अलग-अलग रूपों में ये लोक देवी करीब-करीब भारत के हर कोने में पूजित हैं। सांस्कृतिक परिकल्पना के अनुसार देवी शीतला दिग्वस्त्रा है और गधा उनका वाहन है। इनके हाथों में मार्जनी तथा कलश हैं। देवी के मस्तक पर सूप शोभित है, जो इस लोक मातृका की भयंकरता एवं विभत्सता को रेखांकित करती है। अतः लोक देवी शीतला की उपासना के मूल में भय एवं त्राण की भावनाएं निहित हैं। नागदेवी विषहरी की तरह लोकदेवी शीतला भी पांच बहनें हैं और दोनों का सम्बन्ध नीम वृक्ष से अवश्य है। लोकमान्यता के अनुसार चेचक के रोगियों को नीम की डाली से हवा की जाती है, क्योंकि नीम की पत्तियां ठंडी एवं निरोग मानी जाती हैं । सामान्यतया अग्नि तत्व की प्रधानता के कारण ही शरीर चेचक ग्रस्त हो जाता है। चेचक, गोटी या माता, मैया इसी प्रकार के ताप जन्य रोग हैं, जिनका निवारण शीतला करती है। लोक विश्वास की परम्परा के अनुसार चेचक को शीतला का कोप माना जाता है। यही कारण है कि माताएं आज भी अपनी संततियों की रक्षा के लिये लोकमाता शीतला का पूजन-अर्चन करती रही हैं।
शीतला माता की विशेष पूजा अन्य लोक देवी-देवताओं की तरह श्रावण महीने की शुक्ला सप्तमी के दिन की जाती है। भक्त गण लोकदेवी को प्रसन्न करने के लिये अड़हुल या चम्पा के फूल तथा तितर चढ़ाते हैं। ज्यादातर इनके पुजारी माली और मालिन ही होते हैं। ऐसा माना जाता है कि ये जाति इन्हें अधिक प्रिय हैं। अतः मालियों में इनके गीत अपेक्षाकृत अधिक प्रचलित हैं। मैथिली लोक गीतों में कहीं-कहीं इस देवी का वर्णन बुढ़िया माता के रूप में भी मिलता है।
लोक मान्यता के अनुसार आदि भवानी जगदम्बा के प्रति जब लोक में उदासीनता छाने लगती है तो कभी वह ज्वाला देवी के रूप में प्रकट हो जाती है, कभी कोसी माता के रूप में बाढ़ की भयावहता उपस्थित कर देती हैं। कभी शीतला के रूप में अपने प्रभाव क्षेत्र के बालकों-बालिकाओं की काया विकृत कर देती हैं, तो कभी दक्षरूपा गहिल के रूप में नवजात शिशुओं के मन प्राणों पर मृत्यु की छाया बनकर मंडराने लगती है। अतः इन लोकदेवियों के कोप से बचने के लिए इनकी पूजा-अराधना शुरु हुई हो तो कोई आश्चर्य नहीं। दूसरो शब्दों में शीतला की पूजोपासना के मूल में भय भावना प्रमुख है, जबकि वह संतति रक्षिका ही नहीं, संतति दायिनी भी मानी जाती है।
अंगिका लोकगीतों में शीतला माता को मनाने तथा उनसे आशिर्वाद पाने के कुछ गीत आज भी बहुत हीं चर्चित हैः
हरिहर सुगवा रे गुलाबी रंग ठोर
मठ पर कुतल हे शितला मैया निन्द सं निभोर
जेकरा द्वारप शितला मैया अरदसिया छैही हे ठाढ़
सेहो कैसे सुतल हे माता निह्द स निभोर
दहीं दहीं दहीं रे भक्ता पान फूल हे नवेदे
हम जग तारण माता हे होइबो सहाय
नीपिये पोतिये अबला गे मोखा लागी ठाढ़
गे ढरं ढरं खसो गे अबला नयनमा दोनो हो लोर
पत्थल जों सेबतियै शितला मैया
हे पत्थलो जे पसीजत
अरे तोहरा सेबत शितला मैया
तरथियो फोका भेल
शीतल माय के हाथ में गुलाब के छड़ी
हे बेली फूल के छड़ी चम्पा फूल के छड़ी,
मांग सिन्दुर से भरी, मुख पान से भरी, खोइछा धान से भरी,
मैया हे देहू ना अशीष घरवा जाऊं मैं चली।
-प्रीतिमा वत्स
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आपने शीतला माय के बारे में बहुत ही अच्छी जानकारी प्रस्तुत की है.
ReplyDeleteहमारे भी गाँव में मैया शीतला का थान है और विभिन्न पूजा पाठों में उनकी भी आराधना की जाती है.
प्रतिमा जी, इस बार के नंदन के अंक में (बच्चो की किताब) लोक-रंग और देवी-देवताओं के बारे में अच्छी जानकारी दी गई है। आप पढ़ सकती है।
ReplyDeleteGood Sheetal (Coolest) Mata ki katha bahut accha laga, Thanks/.
ReplyDeleteSir sheetla mata ki daali hwa kaise ki jaati hai
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