बॉक्स - सदियों से हर खुशी और गम में शामिल, सुख-दुख की भागीदार बनी चलती रही, पर अब मैं थक गई हूँ। ध्यान लगाकर सुनो तो शायद मेरी आवाज तुम तक पहुँच जाएगी कि बस अब और नहीं, अब और नहीं।
सदियों से तुम्हारे कष्टों को हरती आ रही हूँ, तुम्हें जीवन देती आ रही हूँ । कई बार खुश हुई कई बार बहुत कष्ट उठाना पड़ा। खुशियाँ बाँटती रही, तुम्हारी फैलाई हुई गंदगी को अपने-आप में समेटती रही लेकिन अब मुझे भी तुम्हारी जरूरत है।
कितनी भक्ति के साथ
भगीरथ ने मुझे इस धरती पर तुम्हारे कल्याण के लिए बुलाया था। साक्षात शिव ने मुझे
हिमालय के पास भेजा। हिमालय ने एक आदर्श पिता की तरह अपने कोमल बाँहों का सहारा
देकर मुझे अपनी शरण में लिया। अत्यंत सफेद अमृत के समान जल लेकर मैं बहती हुई धरती
पर आई। कई युगों को देखा, कभी खुश हुई कभी मेरा हृदय दग्ध भी हुआ।
अलकनंदा नाम से धरती
पर आई, फिर भागीरथी, जब मैं गोमुख से प्रकट हुई तब गंगा कहलाई। गोमुख से कई धाराओं
में निकलकर मैं देव प्रयाग में एक हो गई। जब मैं टिहरी पहुँची और तुमने मुझे
जबर्दस्ती बाँधने की कोशिश की तब मुझे बहुत तकलीफ हुई, पर्यावरण की रक्षा करने वाले
अपने सपूत सुन्दरलाल बहुगुणा को बहुत याद किया। जब मैं यमुना और सरस्वती से मिली
तो मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा, वह संगम स्थल प्रयाग कहलाया।
राजा विक्रमादित्य
के बड़े भाई, प्रख्यात कवि भर्तृहरि ने जहाँ मेरे तट पर तप किया वह हरि की पौढ़ी
कहलाया जो स्वर्ग के सोपान की तरह है। जब मैं कुरू की राजधानी हस्तिनापुर पहुँची,
यहाँ राजा शान्तनु और पुत्र भीष्म को स्मरण करती हुई बहुत काल तक बही, किन्तु
हस्तिनापुर की दुर्दशा को देखकर ऐसी दुखी हुई कि वहाँ से दूर हो गई और अपनी एक
धारा बूढ़ी गंगा से मिलकर गढमुक्तेश्वर पहुँच गई। तत्पश्चात मैं महारानी
लक्ष्मीबाई,बीरबाल मनु,जिसने राष्ट्र की रक्षा के लिए सैन्य संचालन करते हुए अपने
प्राण अर्पण कर दिये थे उन्हें अपने आँचल में समेटने के लिए मैं बिठूर आई। निरंतर
कारखानों के निकलने वाले कूड़े-कचरे से भरे हुए धन से पूर्ण परंतु शोभाहीन कानपूर
शहर आकर मैं बहुत दुखी हुई। चमड़े की गंध और गंदगी जब बर्दाश्त नहीं हुई तो अपनी
वेदना को व्यक्त करने प्रयाग चली गई। पुष्यमित्र शुंग ने जब यहाँ यज्ञ किया तब
जाकर यह तीरथ प्रयाग कहलाया था।
जब मैं आह्लादित
होकर यमुना से मिलने जा रही थी, तभी सरस्वती भी गुप्त रूप से वहाँ आ पहुँची और हम
तीनों का मिलन संगम कहलाया। अनेक धाराओं का यह मिलन स्थल एक ओर जहाँ भारतीय एकता
को पुष्ट करता है वहीं दूसरी ओर त्रिवेणी तट अनेक संस्कृतियों का संगम राष्ट्रीय
एकता एवं अखंडता का संवाहक है। माघ के महीने में मकर संक्रांति के पवित्र अवसर पर
संगम में हर बारह वर्ष में कुम्भ और छह वर्ष में अर्धकुम्भ पर्व के अवसर पर मानवों
का विशाल संगम होता है जो मुझे अत्यंत प्रिय है। यहाँ एक ओर वेद का ज्ञानमय स्वर
सुनाई देता है तो दूसरी ओर द्वैत-अद्वैत के सिद्धान्तों पर चर्चा होती है। कहीं
कृष्ण भक्ति शाखा का मिलन रामभक्ति शाखा के साथ होता है। बुद्धं शरणं गच्छामि का
उद्धोष तथा अहिंसावादी जैनों की कोमल वाणी, सिक्खों की गुरूवाणी और पैगम्बर
मुहम्मद का वचन सभी का संगम इस तीर्थ में है। जब मैं शिव की नगरी काशी पहुँची तो
भक्ति से ओत-प्रोत हो गई। शिव ने अपने त्रिशुल का सहारा दिया और मेरा वेग धीमा
हुआ। वहाँ से मैं शिवाला घाट पहुँची, जहाँ श्मशान में अत्यंत गोपनीय शव साधना में
लगे, अपनी लहरों से दीर्घकाल तक नहलाये जाते हुए किनाराम नामक अवधूत अघोरी के
देखती रही, जिन्होंने प्रमादी राजा चेतसिंह को भ्रष्टराज्य होने का शाप दिया था।
चेतसिंह अंग्रेजों के द्वारा पराजित हुआ और महल छोड़कर भाग खड़ा हुआ। सचमुच नरसंहार
का बड़ा भयानक दृश्य था वह। शिवाला से हनुमान घाट गई जहाँ थोड़ी शांति मिली तो
मणिकर्णिका के तट पर मोक्षदायिनी बनकर पहुँची। यहीं पर सत्यनिष्ठ, प्रतापी,
पवित्र, धार्मिक, दानशील राजा हरिश्चन्द्र ने चाण्डाल कर्म स्वीकार किया था। इसके
बाद मैं केदार घाट पर पहुँची। इस तट पर स्थित भगवान शिव का मंदिर काफी ऊँचाई पर है
और मैं नीचे से सिर्फ निहार सकती हूँ उन्हें। शायद यह इस पृथ्वी पर प्रीति की रीति
है। अतः गौरीकुण्ड में अपने प्रीतिदायक जल को छोड़कर आगे बढ़ जाती हूँ और कई घाटों
को पार करती हुई पंचगंगा घाट पहुँचती हूँ यहाँ पर धूतपापा, किरणा, गंगा, जमुना,सरस्वती
पाँच धाराओं का संगम स्थल है। उसके बाद गायघाट, प्रह्लादघाट, ओंकारेश्वर,
कालेश्वर, भूतभारेश्वर आदि अनेक शिवलिंगों के दर्शन करती हुई राजघाट पहुँचती हूँ।
यहीं पर स्थित गाँधी संस्थान को स्मृति चिह्न के रूप में देखती हुई सोचती हूँ कि
स्वतंत्रता के लिए सोचनेवाले उस महात्मा का क्या भारतीय आज उचित आदर कर रहे हैं? पहले जहाँ इस तट पर आकर मैं गर्व से भर जाती थी वहीं आज कीचड़ से भरी
लुप्त शरीर वाली, संगम स्थल में गन्दगी फैलाती वरणा को देखकर आज के भोग विलासी
साक्षर राक्षसों को बार-बार छोड़ देने का मन करता है। वहाँ से चलकर जब मैं गाजीपुर
पहुँचती हूँ तो गंगी नाम की एक छोटी सी नदी मेरा स्वागत करती है और मुझमें मिलकर
अपने आप को धन्य समझती है। कर्मनाशा जैसी अमंगलकारी को भी अपने-आप में मिलाकर
निर्मल बना देती हूँ। बिहार के मैदानी इलाकों को, वहाँ पर फैली हरियाली को देखकर
मन खुश हो जाता है। जहाँ ज्ञान प्राप्त होने से गौतम बुद्ध हो गए, जहाँ महावीर
तीर्थंकर ने जन्म लिया, गुरू गोविन्द सिंह ने जन्म लिया, अनेकों प्रतापी राजाओं ने
राज्य किया। सोन, घाघरा आदि कई नदियों को अपने आप में समेटती हुई मैं पाटलिपुत्र
पहुँची। यहाँ के क्रूर और विद्रोही राजा अजात-शत्रु को देखकर बहुत दुखी हुई मैं।
जिसने अपने पिता बिम्बिसार को कारागार में डाल दिया था, लेकिन अजात-शत्रु का पुत्र
उदयभद्र बड़ा ही दयालु राजा था। उसी ने पाटलिपुत्र नाम के खूबसूरत शहर को बसाया और
अपनी राजधानी बनाई। यहीं पर मैंने अशोक महान को भिक्षु अशोक बनते हुए भी देखा।
विक्रमादित्य के सुन्दर शासनकाल को भी देखा और हूंणों के आक्रमण से परेशान
कार्तिकेय के शासनकाल को भी। कार्तिकेय और स्कंद गुप्त जैसे सपूतों को आज भी याद
करती हैं मेरी धाराएँ। बाद में शेरशाह ने इस राज्य का नाम बदल कर पटना रख दिया।
वहाँ से गया होते हुए फल्गु और पुनपुन को साथ लेती हुई वैशाली गणराज्य पहुँचती
हूँ। नालंदा विश्वविद्यालय के विनाश की साक्षी भी तो मैं हीं हूँ। वहाँ से चलकर
मैं गिरिव्रज पहूँची, जो आजकल राजगीर के नाम से जाना जाता है। मगध राजाओं की यह
राजधानी आज भी पुरातत्ववेत्ताओं और दर्शकों के द्वारा देखी जाती है। खण्डहरों में
स्थित वह आज भी अपने अतीत के गौरव गाथा को कहती हुई सी नजर आती है। दूर से ही
दरभंगा को देखकर, मिथिला को प्रणाम करती हुई जब मैं अंगदेश में प्रवेश करती हूँ तो
मुंगेर जिले में बूढ़ी गंडक मेरा स्वागत करती हुई सी लगती हैं और मुझमें समाहित हो
जाती है। यहाँ जह्नु ऋषि के आश्रम को देखकर खुश हो जाती हूँ, यहीं पर मेरा नाम
जाह्नवी पड़ा था। अपने पिता के घर में थोड़ी देर विश्राम कर फिर आगे बढ़ जाती हूँ।
आगे बढ़कर भागलपुर नामक शहर में जाती हूँ, जो खानों से युक्त, धन से उन्नत, सुख-सुविधा
सम्पन्न और उद्योग के कल-कारखानों से युक्त है। यहाँ पर ताण्डव मचाती हुई कोसी नदी
को अपने आप में समा लेती हूँ और आगे बढ़ जाती हूँ राजमहल की पहाड़ियों से होते हुए
मैं बंगाल में प्रवेश कर जाती हूँ और सागर को देखकर मिलन के लिए अपने-आप को रोक
नहीं पाती और सागर में समा जाती हूँ। उपहार के रूप में सागर को उपजाऊ मिट्टी ला
लाकर देती रहती हूँ जिससे कि एक प्यारे से डेल्टा का जन्म हुआ है जो सुन्दरवन
कहलाता है।
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