आज के बदलते
परिवेश में जब हम अपनी परंपरा, साहित्य या संस्कृति की बात करते
हैं तो लोकजगत हमें अपनी ओर खींचता है। और यदि हमआदिवासी लोक में झाँकें तो हमें यह
खिंचाव कुछ ज्यादा हीं अपनेपन की उष्मा से भरा मिलता है।
संताल जनजाति
का कोई लिखित इतिहास नहीं है पर इनके बीच प्रचलित रीति-रिवाजों, लोक मान्यताओं और साहित्य में परंपरागत ढंग से इनके ऐतिहासिक तथ्य सुरक्षित
हैं। संताल जनजाति मुख्य रूप से झारखंड की प्रमुख जनजातियों में एक है। वैसे ये बिहार,
पश्चिम बंगाल,उड़ीसा,असम,मेघालय और पड़ोसी देश नेपाल के कुछ हिस्सों में आबाद हैं।
जीविकोपार्जन
के विकल्प तलाशने और शहर की तरफ रुख करने की वजह से इनके दैनिक जीवन में काफी बदलाव
आया है। लेकिन इस समाज में परंपरा का प्रवाह आज भी अपनी मौलिक ऊर्जा के साथ हीं विद्यमान
है। संताली लोक समाज लड़कियों की शादी से विदाई को लेकर बहुत ही ज्यादा संवेदनशील और
परंपरावादी होते हैं।
"पिताजी!
हो रहा है उदित
सुबह की स्वर्णिम
सूर्य।
जाना है कितनी
दूर आपको
चढ़ाने तिलक
मेरे दूल्हे को?"
"नहीं है
बहुत दूर बेटी
पहुँच जाएँगे
हम
दुपहर तक,
अयोध्या गढ़
ही तो जाना है हमें।"
आज भी संताली
समाज में नारियों का सम्मान उनका सबसे बड़ा उत्तरदायित्व होता है। गरीबी में जिंदगी
जीते हैं,
चाहे आधे तन पर ही कपड़ा पहनते हैं पर कभी किसी नारी का अपमान नहीं होने
देते हैं अपने इलाके में। परंपरागत तरीके से अपनी बेटी के लिए दूल्हा तलाश करना,
सम्मान के साथ उनकी विदाई करना वे अपना कर्तव्य समझते हैं।
"मना करता
आ रहा हूँ
बहुत दिनों
से मैं,
पर मानती नहीं
हो
कि पहना मत
करो इतनी लंबी साड़ी तुम,
जो लोटती है
पैर के तलवे
तक तुम्हारे!"
"क्यों नहीं
पहनूँगी साड़ी मैं
जो लोटती है
पैर के तलवा
तक
बुना है इसे
पिताजी ने मेरे
मेरी माँ के
काते हुए धागों
से!"
अपूर्व प्राकृतिक
सम्पदा के बीच भी बेहद कठिन जीवन जीने वाले
संतालों को गीत-संगीत विरासत में मिले हैं। तभी तो इनके बीच यह कहावत प्रचलित
है कि "रोड़ाक् गी राड़ाक, ताड़ामाक् गी हिलावाक्।" अर्थात् हमारी वाणी ही संगीत है और हमारी चाल ही नृत्य है।
गली की अंतिम
छोर में
है एक वट वृक्ष,
डाल से उसकी
जड़ तो फूटा,
पर निकला नहीं
कोपल निकलते-निकलते।
गाँव के युवक
भी
कुछ इसी तरह-
करते तो हैं
प्रेम
पर रख नहीं
पाते
कसमें खाने
के बाद!
संताली जनजातियों
में विवाह एक बहुत हीं महत्वपूर्ण सामाजिक प्रथा है, इनमें समगोत्रीय
विवाह वर्जित है तथा ममेरी या फुफेरी बहनों के साथ भी विवाह की मनाही है, जबकि उरांव, मुण्डा या हो जनजातियों में ऐसी वर्जना नहीं
है। इसलिए कई बार विवाह लड़की की पसंद के खिलाफ भी हो जाता है जिसे नियति मानकर कुबूल
करना ही पड़ता है-
हो रहा है-
स्वर्णिम सूर्योदय,
और चढ़ रही
हूँ मैं
सुहाग-डलिया
पर
सिंदुर-दान
के लिए।
यदि है ममता
मेरे लिए
दिल में तुम्हारे,
तो फेंको मुझपर
-कदम्ब का एक
फूल!
समझूँगी तभी
मैं
कि किया था
तुमने कभी प्यार मुझसे!
....................................
-प्रीतिमा वत्स
(गीत ''सोने की सिकड़ी रूपा की नथिया" नामक किताब से लिया
गया है।)
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