लोक संस्कृति या आदिवासी जीवन में हर व्यक्ति एक विशेष किस्म का कलाकार होता है और इन कलाकारों का जीवन आम लोगों से भिन्न नहीं देखा जा सकता। कला इनके दैनिक जीवन का एक हिस्सा है। ये कलाकार जो कुछ बनाते हैं उसमें उपयोगिता और सौंदर्याभिरुचि दोनों तत्व मौजूद रहते हैं।
जनजाति कला मुख्यतः तीन गुणों से पहचानी जाती है- जीवंतता, प्रमाणिकता और अनामिता। लोक संस्कृति से जुड़े विविध पक्षों को आदिवासी और जनजाति समुदाय सहज कलात्मक समझ के अनुसार रंगों और रेखाओं के माध्यम से प्रकट करता आया है। आदिवासी जीवन में कला दंभ का विषय नहीं, बल्कि आस-पास तथा अनुभूतियों का सृजनात्मक संकलन है। आधुनिक समाज में कलाकार को एक विशिष्ट दर्जा प्राप्त है। जबकि लोक संस्कृति या आदिवासी जीवन में हर व्यक्ति एक विशेष किस्म का कलाकार होता है और इन कलाकारों का जीवन आम लोगों से भिन्न नहीं देखा जा सकता। ये कलाकार जो कुछ बनाते हैं उसमें उपयोगिता और सौंदर्याभिरुचि दोनों तत्व मौजूद रहते हैं। कला यहां दूर से देखने की चीज नही होती। लोग कला को जीते हैं, भोगते हैं। आजादी के बाद के वर्षों में आदिवासी और जनजाति कला ने कुछ तरक्की तो अवश्य की है, पर जो खोया है वह भी कम नहीं है। चाहे वह दक्षिणी बिहार की जादोपेटियन चित्रकला हो, महाराष्ट्र की वार्ली चित्रकला हो, सोनभद्र की जनजाति चित्रकला हो या पिथौड़ा भित्ति चित्रकला हो, इन पचास वर्षों में इनकी आत्मा पर कृतिमता का प्रहार हुआ है। इस प्रहार ने कुछ कलाओं को अच्छी खासी ख्याति दिलाई, लोकिन कुछ लोक कला बहुत पीछे छूट गयी। कई कलाएं जो लुप्त हो गई और कई विकृत हो गयीं।
जनजाति कला सिर्फ अमूल्य धरोहर ही नहीं कही जा सकती, वरन समृद्ध परंपरा सम्पन्न सभ्यता एवं जीवंत संस्कृति के इतिवृत हैं। ये कलाएं वस्तुतः किसी भी समाज के जनमानस का आईना होती है। सदियों से अनाम-अनजाने हाथों में रचे बसे, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सहज परम्परागत ढंग से हस्तांतरित होनेवाली इन कलाओं में लोक मानस के हर्ष-उल्लास, आशा-आकांक्षा, कुंठा-संत्रास आदि मनोभावों की कल्पनायुक्त सरस अभिव्यक्ति मिलती है। महत्वपूर्ण माध्यम नहीं है- सवाल अभिव्यक्ति में आस्था का है। मिट्टी,प्राकृतिक रंगों और सहज कल्पनाओं तथा अवधारणाओं से आदिवासी गांवों की दीवारों पर जो चित्रकारियां नजर आती हैं, उनमें एक तरफ बच्चों की सी मासूमियत दिखती हैं तो दूसरी ओर बूढ़ों का अमुभव संसार भी किसी न किसी रूप में परिलक्षित होता है। भूख, अभाव, भटकाव और बेरोजगारी से जूझते जनजाति कलाकार कला के क्षेत्र में जिस ढंग से सक्रिय है, वह अपने आप में मिसाल है और यह बात इस बात की भी पुष्टि करता है कि मनुष्य केवल पेट के लिए परिश्रम नहीं करता। विज्ञान की भाषा में मनुष्य को होमासेपियन कहा गया है। इसका अर्थ होता है बुद्धिप्रवण जन्तु। ऐसी हालत में केवल आहार, निद्रा, भय और मैथुन की परिधि में मनुष्य बंधा नहीं रह सकता। आदिवासी समुदाय आज पिछड़ा हुआ समझा जाता है। लेकिन उनकी सृजनात्मक चित्रकला तथा विभिन्न कला विधाओं से लगता है कि गरीबी और अन्य समस्याएं कला की गति को नहीं रोक सकती।
जन-जाति चित्रकला में पशु-पक्षियों तथा मनुष्य जीवन के विविध पक्षों का जो चित्रण हुआ है और हो रहा है, वह मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते के बारे में बहुत कुछ कहता है। अभिव्यक्ति के स्तर पर यह चित्रकला जिन विषयों को अभिव्यक्त करती है वे कहीं से भी कला की दुरूहता को स्थापित नहीं करती, बल्कि वे कला की सहजता की वकालत करते हैं। सुबह के समय मुर्गे का बोलना, बरसात में मोर का नाचना और सुंदर स्त्री के प्रति पुरूष का सहज ढंग से आकर्षित होना एवं इस तरह के ढेर सारे स्वाभाविक एवं प्राकृतिक संदर्भ जनजाति चित्रकलाओं में देखने को मिलते हैं। हालांकि, यह भी गौरतलब है कि जनजाति या आदिवासी जनजाति समुदाय को विभिन्न उपजातियों तथा उनकी सास्कृतिक आस्था के आधार पर इन चित्रकलाओं के स्कूल भी मिलते हैं लेकिन हाल के कुछ वर्षों में सरकारी और गैर सरकारी कला संस्थाओं द्वारा इन जनजाति कलाओं के पारंपरिक सकूल और व्याकरण लड़खड़ाये हैं। हालांकि इस बास से इंकार नहीं किया जा सकता कि कलाओं के लिए कई सकारात्मक कदम उठाये गये हैं। गुमनामी में जी रहे जनजाति लोक कलाकारों ने ख्याति पाई, वाजिब सम्मान पाया। कला जनजाति जीवन का हिस्सा थी। कला का आनंद किसी चीज का विकल्प नहीं था। कलात्मक अभिव्यक्तियां विश्लेषण के लिए नहीं होते थे और न हीं कोई कीमत का प्रवधान था। लेकिन कला के संरक्षण के नाम पर किये जा रहे ये कर्म इन कलाओं के प्रदूषण का कारण बन गये। इन जनजाति और लोककलाओं की सहजता नष्ट हो गई। मैं खासकर मधुबनी लोक चित्रकला और संथाल परगना की भित्ति चित्रकला का उदाहरण देना चाहूंगी। बिहार में इन दोनों कलाओं को बचाने के लिए काफी प्रयत्न किए गए। कुछ एक कलाकारों ने विश्व ख्याति प्राप्त की। लेकिन इस ख्याति ने इन दोनों कलाओं को परंपरा से जुदा कर दिया। मधुबनी पेंटिंग, जो शुरू में अपनी सहजता और नैसर्गिकता के लिए जानी जाती थी, धीरे-धीरे दूरूहता और कृत्रिमता का आभास देने लगी। कला महिलाओं की आय का स्त्रोत तो अवश्य बनी लेकिन जहां पहले प्रकृतिक रंगों और बांस की करची और कपड़े का प्रयोग होता था. आधुनिक कलाकार नये रासायनिक रंग, कागज, कलम और तूलिका का प्रयोग करने लगे। यही हाल संथाल परगना की दीवारों पर की जानेवाली चित्रकारी का हुआ । इस कला को दीवार से हटाकर कैनवास और कागज पर लाकर विचार किया जाने लगा तो इसकी स्वाभाविकता तो नष्ट हुई ही, हल्दी और गौमूत्र की जगह रासायनिक रंग आ गये। संथाल परगना और दक्षिणी छोटानागपुर की एक चर्चित लोककला जादोपेटीयन कुछ वर्षों में समाप्त हो जाएगी,ऐसा कहा जाता है। कारण जो भी रहा हो, बंगाल के यमपट और उड़ीसा के पट चित्र कला से मिलती जुलती जादोपेटीयन चित्रकला के दक्षिणी बिहार में मात्र आठ या दस कलाकार रह गये हैं। युवा कलाकार और कला समीक्षक देव प्रकाश ने इस कला के संवर्धन के लिए कुछ प्रयास किए हैं, इस कला और इससे जुड़े मिथक संसार को किताब के शक्ल में भी लाकर कोशिश की है। वाबजूद इसके ये कलाएं अपने स्वाभाविकता से दूर होती नजर आ रही है।
दरअसल, लोक परंपरा भागीदारी और प्रतिबद्धता की मांग करती है। यह लोगो के दैनिक जीवन का एक हिस्सा है। इसलिए लोककला, जनजाति कला और आदिवासी कला के संरक्षण तथा संवर्धन की चिंता को बहुत सकारात्मक नहीं माना जा सकता। ये कलाएं स्वतंत्र हैं और सृष्टि के साथ समरस होकर जीने का संदेश देती है।
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-प्रीतिमा वत्स
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