पिठौरा चित्रकला में दोनों ही लोकों का चित्रण इस खूबी से किया जाता है कि मिथक कब वास्तविक बन जाता है और वास्तविक संसार कब मिथक, पकड़ पाना कठिन है। यही कारण है कि इन भीलों की ये चित्रांकन शैली सम्पूर्ण यथार्थ को अपने में समाये हुए भी फंतासी से परिपूर्ण होते हैं।
गोंड जनजाति के बाद संख्या तथा क्षेत्रफल
की दृष्टि भील जनजाति भारत की जनजातियों में सबसे विशाल जनजाति हैं। पश्चिमी मध्यप्रदेश, गुजरात
तथा राजस्थान के एक बहुत बड़े हिस्से में यह जनजाति बसी हुई है। भील, भिलाला
तथा राठवा, इन तीन प्रमुख उपवर्गों में विभक्त इस
जनजाति में अनेक गोत्र पाए जाते हैं।
वर्तमान समय में भीलों का आर्थिक आधार
कृषि तथा कृषि मजदूरी करना है। किन्तु इन्हें उन्नत कृषक कदापि नहीं माना जा सकता ।
आज भी वे वनों से अनेक प्रकार के कंद मूल फल आदि एकत्रित कर स्वयं उपयोग भी करते हैं
तथा हाट बाजारों में बेचकर कुछ धन भी कमाते हैं। ये आज भी वन्य प्राणियों का शिकार
करते हैं। आजकल बहुत बडी संख्या में भील अहमदाबाद,बड़ौदा,इंदौर,भोपाल,
उदयपुर आदि नगरों
में भवन निर्माण के कार्यों में मजदूरी करने लगे हैं।
भील जनजाति की आस्थाएं तथा धार्मिक विश्वासों
के केन्द्र में उनका मिथकीय संसार ही प्रमुख है। ये आस्थाएं और मिथक मिलकर जब इनकी
दीवारों पर आकार लेते हैं तो एक अलग ही दुनिया बन जाती है। इन मिथकों में बावो इंद
या इंदी राज, पिठौरा,
पिठौरा, रानी
धरती, मालवी घोड़ा, राजा भोज आलमनी गद्धी, वालन
सीतू राणो, राणी काजल एवं काली कोयल आदि अभिप्राय
प्रमुख हैं। ये सभी अभिप्राय घर के भीतरी भाग के उस कक्ष की दीवारों पर बनाए जाते हैं, जिन्हें
भील पवित्र स्थान मानते हैं। जिन दीवारों पर यह कला उकेरी जाती है। उसके चारों तरफ
एक हाशिया घेरा जाता है। इन हाशियों के अन्दर वाले क्षेत्र को घर का भितरी भाग माना
जाता है और इसी क्षेत्र में चित्रों का निर्माण किया जाता है। चित्रों में ऊपरी भाग
में एक लहराती हुई मोटी लकीर खींचकर संपूर्ण क्षेत्र को दो भागों में विभाजित किया
जाता है। नीचे के भाग में लगभग दो तिहाई एवं ऊपर के भाग में लगभग एक तिहाई क्षेत्र
आकाश लोक या देवलोक माना जाता है तथा नीचे का दो तिहाई क्षेत्र भूलोक। दोनों ही क्षेत्रों
में चित्रांकन किए जाते हैं। सामान्यता रसोई तथा बरामदे को पृथक करनेवाली भित्ति को
पिठौरा मिथकों का चित्रांकन किया जाता है।
भील अपने इन भित्ति चित्रों को पिठौरा
कहते हैं। इन चित्रों में निश्चिच तौर पर इह लोक और परलोक जैसे विभाजन तो नहीं होते, किन्तु
चित्रांकन की विषय वस्तु तथा उसमें बनाए गए पात्रों से ही यह ज्ञात होता है कि कौन
से चित्रांकन इहलोक को और कौन से अलौकिक को दर्शाते हैं। दरअसल दोनों ही लोकों का चित्रण
इस खूबी से किया जाता है कि मिथक कब वास्तविक बन जाता है और वास्तविक संसार कब मिथक, पकड़
पाना कठिन है। यही कारण है कि इन भीलों की ये चित्रांकन शैली सम्पूर्ण यथार्थ को अपने
में समाये हुए भी फंतासी से परिपूर्ण होते हैं। क्योंकि यथार्थ कब मिथक में और मिथक
कब यथार्थ में बदल जाता है इसे किसी नियम से समझना कठिन है।
सामान्यतया पिठौरा चित्रकला में सफेद रंग
का प्रयोग किया जाता है। सफेद के साथ हरा,पीला और नीले रंग का प्रयोग किया जाता
है। इन भित्तिचित्रों में पिठौरा के साथ-साथ खेत जोतता हुआ भील कृषक गाय एवं बछड़ा, बन्दर, कुआँ-बावली, दही
मथकर मक्खन निकालते हुए युगल, ऊँट,राजा रावण,पनिहारिनें, सांप,बिच्छू,सूर्य, चन्द्रमा, बाघ, ताड़का
वृक्ष तथा उस पर चढ़कर ताड़ी उतारते हुए एवं ताड़ी पिलाते हुए व्यक्ति, विश्राम
हेतु बरगद का वृक्ष, खजूर का वृक्ष , मधुमक्खी
का छत्ता एवं उससे टपकता हुआ शहद आदि अभिप्रायों का चित्रण किया जाता है।
पिठौरा भित्ति चित्रण श्रावण मास में बनाए
जाते हैं। पिठौरा बनाने वाला कलाकार चित्रांकन करते समय व्रत रखता है, तथा
उसे पूरा करने के पश्चात ही भोजन करता है। जिस परिवार में पिठौरा चित्रांकण किया जाता
है, उस परिवार के लड़के एवं कन्याएं भी चित्रांकन पूर्ण होने तक व्रत रखते हैं।
चित्रांकन पूर्ण होने पर दूसरे दिन उपवास रखनेवाले लड़कों व कन्याओं को दारू का प्रसाद
देते हैं। यह कार्य घर के प्रमुख द्वारा सम्पन्न किया जाता है। चित्रांकन के अवसर पर
पूरी रात जागरण किया जाता है, और परंपरागत गीत गाये जाते हैं। दूसरे
दिन एक बकरा, एक बकरी तथा पांच मुर्गे बलि चढ़ाए जाते
हैं। इस प्रकार पिठौरा अलंकरण एक पूर्ण रूप से भीलों का अनुष्ठानिक एवं धार्मिक आयोजन
है।
-प्रीतिमा वत्स
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