चैत पूर्णिमा की रात और बैशाख की सुबह झारखंड और बिहार के अधिकांश इलाकों में बासी भात के नाम से प्रसिद्ध है। यह पर्व मुख्यतः गोड्डा,भागलपुर,बांका,दुमका ,देवघर,दरभंगा आदि जिले के गांवों में आज भी बड़े उत्सव के साथ मनाया जाता है।
चैत पूर्णिमा की रात को घर की महिलाएँ अपने रसोई घर की अच्छी तरह से सफाई करके सोती हैं। इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि कोई जूठा या बचा हुआ खाना न रह जाए। रात के दो से तीन बजे के बीच औरतें उठकर अपना चौका चूल्हा संभाल लेती हैं। दूसरे दिन खाया जानेवाला पूरा खाना उसी समय बना लिया जाता है। इस खाने में तरह-तरह के व्यंजन बनाए जाते हैं। सुबह होने से पहले ही औरतें अपने रसोई का काम खत्म करके सो जाती हैं।
बड़े जोर-शोर से सुबह घर की सफाई की जाती है। फिर तुलसी के पौधे के ऊपर एक घड़ा लटकाया जाता है। जिसमें नीचे एक छेद होता है। इस छेद से बूंद-बूंद पानी टपकता रहता है। यह घड़ा पूरे बैशाख भर लटका रहता है। रोज सुबह घर के हर आदमी नहा-धोकर इस घड़े में जल डालते हैं। जिससे पूरे महीने पौधा हरा रहता है।
उस दिन जौ के सत्तु,गुड़, कच्चे आम, और दही से भगवान विष्णु तथा तुलसी जी की पूजा की जाती है। इसके बाद आधी रात को बना हुआ खाना भगवान तथा पितरों को भोग लगाया जाता है। फिर वही खाना सारा दिन घर के सब लोग खाते हैं। इस दिन घर में चूल्हा नहीं जलाया जाता है।
इस पर्व को मनाने के पीछे शायद यह कामना रही हो कि बैशाख से शुरू होनेवाले प्रचंड गर्मी में भगवान घड़े के बूंद-बूंद टपकते पानी की तरह शीतलता बनाए रखें। घर में चूल्हा शायद इसलिए भी नहीं जलाया जाता है कि इस चिलचिलाती धूप में धरती माँ को थोड़ी सी तो राहत महसूस हो।
-प्रीतिमा वत्स
Saturday, April 18, 2009
Thursday, April 9, 2009
लोक देवता चूटोनाथ
चूटोनाथ के पूजन-दर्शन का कार्य यूँ तो बारहों महीने चलता रहता है। पर वैशाख के महीने में उनकी विशेष पूजा की जाती है जिसे स्थानीय लोग चड़क पूजा कहते हैं।
दुमका (संताल परगना) से करीब 15 किलोमीटर की दूरी पर चूटो पहाड़ियों के बीच झारखंड का एक महत्वपूर्ण धार्मिक तथा ऐतिहासिक स्थल स्थित है जहाँ लोक-आस्था के प्रतीक बाबा चूटोनाथ का मंदिर है। बाबा चूटोनाथ भगवान् भोले शंकर के प्रतिरूप माने जाते हैं और इनकी मान्यता बैद्यनाथधाम और बासुकीनाथ जैसे प्रमुख एवं प्रसिद्ध शैव-स्थल के रूप में है।
ऐसी लोक-मान्यता है कि बाबा चूटोनाथ अपने भक्तों की हर प्रकार के अनिष्ट से रक्षा करते हैं और उनके दरबार में माँगी गयी हर प्रकार की मनौतियाँ पूरी होती हैं। हरे-भरे वृक्षों से बीच चूटो पहाड़ की तलहटी में चूटो बाबा के मंदिर के निकट ही पहाड़ी बाबा का पूजा-स्थल स्थित है जिनकी मान्यता चूटो बाबा के कर्ता के रूप में है, अर्थात बाबा चूटोनाथ से माँगी गयी मनौतियाँ पहाड़ी बाबा पूरी करते हैं। मनौतियाँ पूरी होने पर लोग पहाड़ी बाबा को पाठा(बकरा),मुर्गा आदि की बलि चढ़ाते हैं और मदिरा भी अर्पित करते हैं क्योंकि ये वनदेव के रूप में पूजित हैं। यहाँ पर चढ़ाई जानेवाली बलि को किसी बलिवेदी में नहीं लगाया जाता है, सीधे कटार से वार किया जाता है। यह भी विडम्बना है कि एक ही बार में सर धड़ से अलग हो जाता है और बलि के लिए प्रयुक्त कटार पर रक्त का नामोंनिशान नहीं रहता है। पहाड़ी पर स्थित चूटोनाथ के मंदिर में किसी तरह की बलि नहीं चढ़ती। वहाँ फूल-बेलपत्र और जल से बाबा का पूजन- अर्चन होता है।
चूटोनाथ में झारखंड और बिहार के अतिरिक्त पश्चिम बंगाल के श्रद्धालु भक्त और दर्शनार्थी भी सालोंभर आते रहते हैं। हालाँकि बाबा चूटोनाथ की मान्यता वनदेव या जंगली देवता के रूप में है, किन्तु इनके प्रति आदिवासी और गैर-आदिवासी सभी लोगों की आस्था समान रूप से है। संताल परगना के घटवाल जाति के लोगों में इनके प्रति विशेष श्रद्धा है और वे लोग इन्हें अपने इष्टदेव के रूप में पूजते हैं। उनकी ऐसी मान्यता है कि चूटोनाथ बाबा हर प्रकार के रोग, व्याधि और संकट से रक्षा करते हैं। बाबा चूटोनाथ के दूत स्वरूप पूजित पहाड़ी बाबा के पुजारी जहाँ चूटोनाथ के परम घटवाल भक्त फक्कू राय के वंशज हैं, बाबा चूटोनाथ के पुजारी ब्राह्मण कुल के होते हैं।
चूटोनाथ की आस-पास की पहाड़ियों में पाँच गुफाएँ हैं जहाँ देवी की पूजा होती है। निकट के झंझरा पहाड़ी की गुफा में स्थित देवी का मान्यता बड़ी देवी के रूप में है। किंवदन्ती है कि झंझरा पहाड़ी मे स्थित बड़ी देवी को पुराने समय में नर-बलि भी दी जाती थी।
बाबा चूटोनाथ के भक्तों की सूची बड़ी लंबी है, जिनमें मखना साधु, पहाड़ी बाबा और महानन्दों साधु के नाम श्रद्धापूर्वक लिये जाते हैं। इनमें मखना साधु का नाम अत्यंत प्रसिद्ध है। मखना बाबा चूटोनाथ के अनन्य भक्त थे। वे प्रतिदिन बाबा चूटोनाथ के शिवलिंग को निकट के सरोवर में ले जाकर स्नान कराते थे। उन दिनों चूटोनाथ की आस-पास की पहाड़ियों में घने जंगल थे। मखना बाबा को पेड़-पौधे, जंगल और वन्य जीवों से अत्यंत लगाव था। कहते हैं कि उन्होंने एक बाघ पाल रखा था जो सदैव उनके साथ रहता था। प्रत्येक पूर्णिमा की रात्रि में वे बाबा चूटोनाथ के पूजन के बाद पत्तल के 52 दोने मंदिर के सामने लगाते थे । दोना लगाने के बाद वे एक खास तरह की आवाज लगाते थे और इसे सुनते ही निकट के जंगल से आकर मोर, खरगोश, तीतर, जंगली बिल्ली, चूहा सरीखे पशु-पक्षी मखना बाबा के साथ भोग खाते थे। मखना बाबा ने चूटोनाथ मंदिर के पास अनेक वृक्ष लगाये थे जिनमें से कई आज भी उनकी याद दिलाते हैं। मखना बाबा की मृत्यु होने पर उन्हें चूटोनाथ मंदिर के समक्ष दफनाकर उनकी समाधि बना दी गयी है।
चूटोनाथ के पूजन-दर्शन का कार्य साल के बारहों महीने चलता रहता है। पर वैशाख के महीने में उनकी विशेष पूजा की जाती है जिसे स्थानीय लोग चड़क पूजा कहते हैं। बाबा चूटोनाथ की चड़क पूजा के पूर्व निकट के गाँव दीघी के काली मंदिर में देव-रूप में पूजित शिलाखंड बनेसर (अर्थात वन के ईश्वर बनेश्वर) की आस पास के सभी गांवों में समारोह पूर्वक प्रदक्षिणा करायी जाती है और फिर उन्हें चूटोनाथ मंदिर परिसर में लाया जाता है।
बनेसर देव के यहाँ पहुँचते ही चड़क पूजा की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है जो कि रात भर चलता रहता है। चूटोनाथ शिवलिंग का दर्शन कर भगतिया लोग लकड़ी के एक खम्भे जिसे ढोल शिवा कहते हैं, पर उल्टा लटककर झूलते हैं और नीचे आग जलती रहती है। इसके बाद भक्तगण कँटीली झाड़ियों पर नंगे बदन लोटकर लफरा काँटा की रस्म पूरी करते हैं। फिर रोमांचक फूल खेला होता है जिसमें हजारों भक्त नंगे पाँव जलते हुए आंगारों पर नृत्य करते हैं । जिन लकड़ी के लट्ठों के जलने से बने अंगारों पर यह नृत्य होता है उसे भक्त द्वारा चूटोनाथ के मंदिर से हथेली पर लायी अग्नि से प्रज्वलित किया जाता है। यह शिव स्वरूप चूटोबाबा का ही चमत्कार है कि रातभर इस हठयोगपूर्ण पूजा-साधना में लीन रहने के बावजूद कोई भी भक्त आहत नहीं होता है। भक्तों के लिए बाबा चूटोनाथ एक जागृत देव हैं, जिनके दर से कोई भी निराश नहीं लौटता है।
-प्रीतिमा वत्स
दुमका (संताल परगना) से करीब 15 किलोमीटर की दूरी पर चूटो पहाड़ियों के बीच झारखंड का एक महत्वपूर्ण धार्मिक तथा ऐतिहासिक स्थल स्थित है जहाँ लोक-आस्था के प्रतीक बाबा चूटोनाथ का मंदिर है। बाबा चूटोनाथ भगवान् भोले शंकर के प्रतिरूप माने जाते हैं और इनकी मान्यता बैद्यनाथधाम और बासुकीनाथ जैसे प्रमुख एवं प्रसिद्ध शैव-स्थल के रूप में है।
ऐसी लोक-मान्यता है कि बाबा चूटोनाथ अपने भक्तों की हर प्रकार के अनिष्ट से रक्षा करते हैं और उनके दरबार में माँगी गयी हर प्रकार की मनौतियाँ पूरी होती हैं। हरे-भरे वृक्षों से बीच चूटो पहाड़ की तलहटी में चूटो बाबा के मंदिर के निकट ही पहाड़ी बाबा का पूजा-स्थल स्थित है जिनकी मान्यता चूटो बाबा के कर्ता के रूप में है, अर्थात बाबा चूटोनाथ से माँगी गयी मनौतियाँ पहाड़ी बाबा पूरी करते हैं। मनौतियाँ पूरी होने पर लोग पहाड़ी बाबा को पाठा(बकरा),मुर्गा आदि की बलि चढ़ाते हैं और मदिरा भी अर्पित करते हैं क्योंकि ये वनदेव के रूप में पूजित हैं। यहाँ पर चढ़ाई जानेवाली बलि को किसी बलिवेदी में नहीं लगाया जाता है, सीधे कटार से वार किया जाता है। यह भी विडम्बना है कि एक ही बार में सर धड़ से अलग हो जाता है और बलि के लिए प्रयुक्त कटार पर रक्त का नामोंनिशान नहीं रहता है। पहाड़ी पर स्थित चूटोनाथ के मंदिर में किसी तरह की बलि नहीं चढ़ती। वहाँ फूल-बेलपत्र और जल से बाबा का पूजन- अर्चन होता है।
चूटोनाथ में झारखंड और बिहार के अतिरिक्त पश्चिम बंगाल के श्रद्धालु भक्त और दर्शनार्थी भी सालोंभर आते रहते हैं। हालाँकि बाबा चूटोनाथ की मान्यता वनदेव या जंगली देवता के रूप में है, किन्तु इनके प्रति आदिवासी और गैर-आदिवासी सभी लोगों की आस्था समान रूप से है। संताल परगना के घटवाल जाति के लोगों में इनके प्रति विशेष श्रद्धा है और वे लोग इन्हें अपने इष्टदेव के रूप में पूजते हैं। उनकी ऐसी मान्यता है कि चूटोनाथ बाबा हर प्रकार के रोग, व्याधि और संकट से रक्षा करते हैं। बाबा चूटोनाथ के दूत स्वरूप पूजित पहाड़ी बाबा के पुजारी जहाँ चूटोनाथ के परम घटवाल भक्त फक्कू राय के वंशज हैं, बाबा चूटोनाथ के पुजारी ब्राह्मण कुल के होते हैं।
चूटोनाथ की आस-पास की पहाड़ियों में पाँच गुफाएँ हैं जहाँ देवी की पूजा होती है। निकट के झंझरा पहाड़ी की गुफा में स्थित देवी का मान्यता बड़ी देवी के रूप में है। किंवदन्ती है कि झंझरा पहाड़ी मे स्थित बड़ी देवी को पुराने समय में नर-बलि भी दी जाती थी।
बाबा चूटोनाथ के भक्तों की सूची बड़ी लंबी है, जिनमें मखना साधु, पहाड़ी बाबा और महानन्दों साधु के नाम श्रद्धापूर्वक लिये जाते हैं। इनमें मखना साधु का नाम अत्यंत प्रसिद्ध है। मखना बाबा चूटोनाथ के अनन्य भक्त थे। वे प्रतिदिन बाबा चूटोनाथ के शिवलिंग को निकट के सरोवर में ले जाकर स्नान कराते थे। उन दिनों चूटोनाथ की आस-पास की पहाड़ियों में घने जंगल थे। मखना बाबा को पेड़-पौधे, जंगल और वन्य जीवों से अत्यंत लगाव था। कहते हैं कि उन्होंने एक बाघ पाल रखा था जो सदैव उनके साथ रहता था। प्रत्येक पूर्णिमा की रात्रि में वे बाबा चूटोनाथ के पूजन के बाद पत्तल के 52 दोने मंदिर के सामने लगाते थे । दोना लगाने के बाद वे एक खास तरह की आवाज लगाते थे और इसे सुनते ही निकट के जंगल से आकर मोर, खरगोश, तीतर, जंगली बिल्ली, चूहा सरीखे पशु-पक्षी मखना बाबा के साथ भोग खाते थे। मखना बाबा ने चूटोनाथ मंदिर के पास अनेक वृक्ष लगाये थे जिनमें से कई आज भी उनकी याद दिलाते हैं। मखना बाबा की मृत्यु होने पर उन्हें चूटोनाथ मंदिर के समक्ष दफनाकर उनकी समाधि बना दी गयी है।
चूटोनाथ के पूजन-दर्शन का कार्य साल के बारहों महीने चलता रहता है। पर वैशाख के महीने में उनकी विशेष पूजा की जाती है जिसे स्थानीय लोग चड़क पूजा कहते हैं। बाबा चूटोनाथ की चड़क पूजा के पूर्व निकट के गाँव दीघी के काली मंदिर में देव-रूप में पूजित शिलाखंड बनेसर (अर्थात वन के ईश्वर बनेश्वर) की आस पास के सभी गांवों में समारोह पूर्वक प्रदक्षिणा करायी जाती है और फिर उन्हें चूटोनाथ मंदिर परिसर में लाया जाता है।
बनेसर देव के यहाँ पहुँचते ही चड़क पूजा की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है जो कि रात भर चलता रहता है। चूटोनाथ शिवलिंग का दर्शन कर भगतिया लोग लकड़ी के एक खम्भे जिसे ढोल शिवा कहते हैं, पर उल्टा लटककर झूलते हैं और नीचे आग जलती रहती है। इसके बाद भक्तगण कँटीली झाड़ियों पर नंगे बदन लोटकर लफरा काँटा की रस्म पूरी करते हैं। फिर रोमांचक फूल खेला होता है जिसमें हजारों भक्त नंगे पाँव जलते हुए आंगारों पर नृत्य करते हैं । जिन लकड़ी के लट्ठों के जलने से बने अंगारों पर यह नृत्य होता है उसे भक्त द्वारा चूटोनाथ के मंदिर से हथेली पर लायी अग्नि से प्रज्वलित किया जाता है। यह शिव स्वरूप चूटोबाबा का ही चमत्कार है कि रातभर इस हठयोगपूर्ण पूजा-साधना में लीन रहने के बावजूद कोई भी भक्त आहत नहीं होता है। भक्तों के लिए बाबा चूटोनाथ एक जागृत देव हैं, जिनके दर से कोई भी निराश नहीं लौटता है।
-प्रीतिमा वत्स
Monday, April 6, 2009
सोहराय पर्व का आरंभ कैसे हुआ ?
लोक जीवन में हर पर्व, हर उत्सव,हर पहलू के पीछे कुछ न कुछ किंवदन्तियां जरूर होती हैं। सोहराय पर्व को मनाने के पीछे भी एक बहुत ही रोचक कथा है-
लोक मान्यता हैं,ठाकरान(आदिदेवी) की हंसली हड्डी (गले की हड्डी) के मैल से बने हांस-हांसिल (हंस-हंसिनी) पक्षियों ने विशाल जल-राशि पर तैरते हुए बिरना (खस घास) के झाड़ में अपना घोंसला बनाया था जहां हांसिल (हंसिनी) ने दो अंडे दिए थे, जिनसे दो मानव शिशु उत्पन्न हुए थे। तब, ठाकुर जिउ (सृष्टिकर्ता) को चिंता हुई कि उन दोनों मानव -शिशुओं के आहार की व्यवस्था की जाए।
उस समय स्वर्गपुरी में आइनी-बाइनी कपिला गाएं थीं। ठाकुर जिउ ने मारांग बुरू (महादेव) को अपने पास बुलाकर कहा कि उन गौओं को पृथ्वी पर ले जाएं। मारांग बुरू स्वर्ग पुरी में ही रहते थे, परंतु वे पृथ्वी पर तोड़े सुताम (काल्पनिक तंतु) के सहारे आसानी से आ-जा सकते थे।
ठाकुर जिउ के आदेशानुसार, मारांग बुरू बहुत अनुनय-विनय करके नर-मादा आइनी-बाइनी कपिला गौओं को पृथ्वी पर ले आए और उन्हें जंगल में रखा। साथ ही, पृथ्वी पर मारांग बुरू ने मड़ुआ,सावां आदि कुछ मोटे अनाजों के बीज जहां-तहां छींट दिए। कालक्रम में प्रथम मानव -दंपत्ति, पिलचू हाड़ाम-पिलचू बूढ़ी तथा कपिला गौओं की वंश-वृद्धि हो गई। मानव-संतानें बाकुक नाहेल (हाथों से चलाने वाले हल) से जमीन जोतकर अनाज उपजाना सीख चुकी थीं। उस पर मारांग बुरू ने उनलोगों से कहा, अपने हाथों से कबतक हल जोतते रहोगे ? जाओ, जंगल से नर-मादा कपिला गौओं को ले आओ। उनमें से नर-गौओं(बैलों) से हल चलाया करना और मादा-गौओं(गायों) के दूध खाया-पीया करना। तब, वे मानव उन गौओं की खोज में जंगल को गए। वहां उन्हें वे गौएं झुंड में एक ही जगह इकट्ठी मिल गईं। अतः मानव गौओं को जंगल से हांककर अपने यहां ले आए। गायों के आने की खुशी में लोगों ने उन पशुओं के सींगों में तेल-सिंदूर लगाकर उनका स्वागत किया गया, उनका परिछन किया गया और उन्हें गोहाल (मवेशी-घर) में रखा,दूसरे दिन उन मवेशियों को गोहाल से निकालकर चरने के लिए, चरवाहों के साथ, बाहर भेज दिया गया और गोहालों को साफ-सुथरा करके पूजा की गई। सांझ हो जाने पर वे सभी मवेशी गोहालों में अपनी-अपनी जगह पर आ गए। तब, धूप-दीपों के साथ उन मवेशियों का परिछन किया गया। साथ ही, गीत-नाद के साथ उस दिन रात्रि-जागरण किया गया। फिर, तीसरे दिन, बैलों को अपने-अपने दरवाजे पर निकालकर, उन्हें सजा-धजाकर गली में गाड़े गए खूंटों में बांधकर हड़काए जाते हुए खेल-कूद किया जाता रहा। चौथे दिन घर-घर से कुछ-कुछ अनाज मांगकर सहभोज किया गया और पांचवें दिन बेझा तुंग (लक्ष्य-वेध) करके गोधन-पर्व की समाप्ति की गई।
कहते हैं, सोहराय पर्व का आरंभ उसी दिन से हुआ है। उस पर्व का पहला दिन गोट पूजा का दूसरा दिन गोहाल पूजा का तीसरा दिन खुण्टाउ (बैल खूंटने) का, चौथा दिन जाले का और पांचवां दिन बेझा तुंग का दिन कहलाता है। तब से यह पर्व हर साल बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। संताल परगना में यह पर्व मकर-संक्रांति के ठीक पहले मनाया जाता है जबकि दक्षिण बिहार,उड़ीसा आदि में दीपावली के अवसर पर मनाया जाता है।
-प्रीतिमा वत्स
लोक मान्यता हैं,ठाकरान(आदिदेवी) की हंसली हड्डी (गले की हड्डी) के मैल से बने हांस-हांसिल (हंस-हंसिनी) पक्षियों ने विशाल जल-राशि पर तैरते हुए बिरना (खस घास) के झाड़ में अपना घोंसला बनाया था जहां हांसिल (हंसिनी) ने दो अंडे दिए थे, जिनसे दो मानव शिशु उत्पन्न हुए थे। तब, ठाकुर जिउ (सृष्टिकर्ता) को चिंता हुई कि उन दोनों मानव -शिशुओं के आहार की व्यवस्था की जाए।
उस समय स्वर्गपुरी में आइनी-बाइनी कपिला गाएं थीं। ठाकुर जिउ ने मारांग बुरू (महादेव) को अपने पास बुलाकर कहा कि उन गौओं को पृथ्वी पर ले जाएं। मारांग बुरू स्वर्ग पुरी में ही रहते थे, परंतु वे पृथ्वी पर तोड़े सुताम (काल्पनिक तंतु) के सहारे आसानी से आ-जा सकते थे।
ठाकुर जिउ के आदेशानुसार, मारांग बुरू बहुत अनुनय-विनय करके नर-मादा आइनी-बाइनी कपिला गौओं को पृथ्वी पर ले आए और उन्हें जंगल में रखा। साथ ही, पृथ्वी पर मारांग बुरू ने मड़ुआ,सावां आदि कुछ मोटे अनाजों के बीज जहां-तहां छींट दिए। कालक्रम में प्रथम मानव -दंपत्ति, पिलचू हाड़ाम-पिलचू बूढ़ी तथा कपिला गौओं की वंश-वृद्धि हो गई। मानव-संतानें बाकुक नाहेल (हाथों से चलाने वाले हल) से जमीन जोतकर अनाज उपजाना सीख चुकी थीं। उस पर मारांग बुरू ने उनलोगों से कहा, अपने हाथों से कबतक हल जोतते रहोगे ? जाओ, जंगल से नर-मादा कपिला गौओं को ले आओ। उनमें से नर-गौओं(बैलों) से हल चलाया करना और मादा-गौओं(गायों) के दूध खाया-पीया करना। तब, वे मानव उन गौओं की खोज में जंगल को गए। वहां उन्हें वे गौएं झुंड में एक ही जगह इकट्ठी मिल गईं। अतः मानव गौओं को जंगल से हांककर अपने यहां ले आए। गायों के आने की खुशी में लोगों ने उन पशुओं के सींगों में तेल-सिंदूर लगाकर उनका स्वागत किया गया, उनका परिछन किया गया और उन्हें गोहाल (मवेशी-घर) में रखा,दूसरे दिन उन मवेशियों को गोहाल से निकालकर चरने के लिए, चरवाहों के साथ, बाहर भेज दिया गया और गोहालों को साफ-सुथरा करके पूजा की गई। सांझ हो जाने पर वे सभी मवेशी गोहालों में अपनी-अपनी जगह पर आ गए। तब, धूप-दीपों के साथ उन मवेशियों का परिछन किया गया। साथ ही, गीत-नाद के साथ उस दिन रात्रि-जागरण किया गया। फिर, तीसरे दिन, बैलों को अपने-अपने दरवाजे पर निकालकर, उन्हें सजा-धजाकर गली में गाड़े गए खूंटों में बांधकर हड़काए जाते हुए खेल-कूद किया जाता रहा। चौथे दिन घर-घर से कुछ-कुछ अनाज मांगकर सहभोज किया गया और पांचवें दिन बेझा तुंग (लक्ष्य-वेध) करके गोधन-पर्व की समाप्ति की गई।
कहते हैं, सोहराय पर्व का आरंभ उसी दिन से हुआ है। उस पर्व का पहला दिन गोट पूजा का दूसरा दिन गोहाल पूजा का तीसरा दिन खुण्टाउ (बैल खूंटने) का, चौथा दिन जाले का और पांचवां दिन बेझा तुंग का दिन कहलाता है। तब से यह पर्व हर साल बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। संताल परगना में यह पर्व मकर-संक्रांति के ठीक पहले मनाया जाता है जबकि दक्षिण बिहार,उड़ीसा आदि में दीपावली के अवसर पर मनाया जाता है।
-प्रीतिमा वत्स
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