Monday, November 24, 2008

कागा अभागा नकबेसर ले भागा...

किसने लिखी होगी ये लोक कविता...शायद किसी को नहीं मालुम?.....उस कवि ने भी अपने नाम की चिन्ता न की होगी।
तब कोई आलोचक भी नहीं रहा होगा....लेकिन सालों से ये लोक कविता पीढी दर पीढी लोक की हवाओं में गुंजती रही है।
शायद लोक गीत की सबसे बड़ी विशेषता भी यही है कि......अनाम कवि की रचना होते हुए भी हर घर में देती है दस्तक।
आप भी देखिए...कैसे अभागा कागा नकबेसर लेकर भागा है...


नक्बेसर कागा ले भागा
अरे मोरा सैंयां अभागा ना जागा,

उड उड कागा मोरी बिंदिया पे बैठा...बिंदिया पे बैठा.
अरे मोरे माथे का सब रस ले भागा,नक्बेसर कागा ले भागा
अरे मोरा सैंयां अभागा ना जागा,

उड उड कागा मोरे नथुनी पे बैठा अरे नथुनी पे बैठा.
मोरे होंठ्वा का सब रस ले भागा,
नक्बेसर कागा ले भागा
अरे मोरा सैंयां अभागा ना जागा,नक्बेसर कागा ले भागा
अरे मोरा सैंयां अभागा ना जागा,

उड उड कागा मोरे चोलिया पे बैठ, अरे चोलिया पे बैठा....
अरे जुबना का सब रस ले भागा, अरे जोबना का सब रस ले भागा
नक्बेसर कागा ले भागा
अरे मोरा सैंयां अभागा ना जागा,

उड उड कागा मोरे करधन पे बैठा अरे करधन पे बैठा,
अरे मेरी जोबना का सब रस ले भागा मोरा
अरे नक्बेसर कागा ले भागा
अरे मोरा सैंयां अभागा ना जागा,

9 comments:

  1. बहुत सुन्दर लोकगीत है।आभार।

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  2. ख़ास कर होली के मौक़े पर मेरे गाँव में अब भी गाया जाता है ये लोकगीत. पूरा गीत मुझे याद नहीं था, इसलिए प्रस्तुति के लिए विशेष आभार!

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  3. इसी तर्ज पर एक पुराना फ़िल्मी गीत भी है..
    शायद इसी से नकल किया गया हो..

    उड उड बैठी हलवईया दुकनिया.. बर्फ़ी के सब रस ले लियो रे पिजरें वाली मुनिया

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  4. सही कहा ये फगुआ के रूप में खूब गाया जाता है..और बहुत भला लगता है

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  5. प्रीतिमा जी, आपको जितना धन्‍यवाद दूं, कम है। होली के मौके पर गाए जानेवाले भोजपुरी अंचल के इस लोकप्रिय फाग को अब गांवों में भी लोग भूलते जा रहे हैं। मैंने भी न जाने कितनी बार गाया होगा, लेकिन अब सारी कडियां याद नहीं थीं। आप ने स्‍मृति ताजा कर दी। आपका ब्‍लॉग बहुत अच्‍छा लगा..अपने नाम को सार्थक करता हुआ..लोकजीवन का वैभव यहां देखते बन रहा है।

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  6. behatareen prastuti.
    kripaya word verification hata dein.

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  7. अच्छा लगा लोकगीत को जानना...आभार

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