Tuesday, November 11, 2008

सामा-चकेवा में ही नहीं,हर जगह हैं चुगलखोर?


सामा-चकेबा में एक पात्र होता है चुगला। सबसे बड़ा चुगलखोर। यानी पीठ पीछे निंदा करने में माहिर। भाई बहन का अटूट प्यार, ननद-भौजाई की नोंक-झोंक तथा पति-पत्नी का अशेष प्रेम अभिव्यंजित करते लोक पर्व सामा-चकेबा में और भी कई पात्र दिलचस्प हैं।

मिथिला की औरतों के बीच काफी प्रचलित है सामा-चकेबा। कार्तिक शुक्ल पंचमी से शुरु होकर पूर्णिमा तक चलने वाला यह लोक पर्व उत्साह और उल्लास से पूरी तरह सरावोर है। यह पर्व मुख्यतः कुवांरी लड़कियों तथा नवविवाहिताओं में अधिक लोकप्रिय है। इसका सम्बन्ध मुख्य रूप से कृषि से है। इस लोक-नाट्य में भाई बहन का अटूट प्यार, ननद-भौजाई की नोंक-झोंक तथा पति-पत्नी का प्रेम अभिव्यंजित हुआ है। सामा बहन है चकेवा भाई। अन्य पात्र हैः चुगला, सतभइया, वन-तीतर, झाँझी, कुत्ता एवं वृन्दावन। इनमें चुगला सबसे दिलचस्प पात्र है। इसका अभिनय अत्यंत मनोरंजक होता है। चुगला वह व्यक्ति होता है जो किसी की पीठ पीछे निंदा करने में माहिर होता है, अथवा इधर-उधर लगा-बुझाकर अपना उल्लू सीधा करता है। हर समाज में इस तरह के चुगलखोर मिलते हैं। इस लोक-नाट्य का प्रमुख उद्देश्य भाई-बहन के हृदय में विशुद्ध प्रेम-भाव को दर्शाना उसे ताजा करना है। चुगला अपनी चुगलखोरी वृत्ति के कारण उनमें व्यवधान पैदा करता है। यही कारण है कि वहनें चुगला का उपहास करती है। चुगला की मूर्ति ऐसी बनायी जाती है जिससे वह मूर्ख दिखायी दे। उसकी कमर में आर-पार छेद करके सुतली लगा दी जाती है। इसको लड़कियाँ प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा करके सरकाती रहती हैं, जिसका मतलब उसे दंडित करना होता है। साथ हीं गाती हैं-
चुगला करे चुगलपन बिलइया करे म्याऊँ
ध.....के चुगला के फांसी दीउ
जतय हमार बाबा बइसे ततय चुगला चुगली करे
जनय हमार भइया बइसे तनय चुगला चुगली करे
ध.....के चुगला के फांसी दीउ।।

इसमें सतभइया नाम का एक महत्वपूर्ण पात्र होता है। सतभइया का अर्थ है सात भाई। इस पात्र के माध्यम से किसी विशेष भाई-बहन का गुणगान करके समस्त भाई-बहनों का गुणगान किया जाता है।
खँजन चिड़िया शरद् ऋतु में आती है। इस ऋतु की अग्रदूत मानी जाती है खँजन चिड़िया को इस लोकनाट्य में सर्वाधिक महत्व प्राप्त है। वन-तीतर की कल्पना इसलिए की गई है कि इस लोक-नाट्य का प्रदर्शन नदी किनारे-खेद या वन में होता है। कुत्ता एक पारिवारिक पशु है। झांझी कुत्ते की परिकल्पना का भी यही कारण है। जब कन्याएं, बहुएं सामा-चकेबा का गीत गाती हुई नदी-तालाब या खेतों की ओर जाती हैं तो यह कुत्ता भी उनके साथ अवश्य होता है। वृन्दावन वन विशेष का प्रतीक है। इसका मानवीकरण किया गया है। इसकी आकृति मनुष्य सी बनाई जाती है तथा इसकी देह में सींकीं खोंस दी जाती हैं। कन्याएँ जब गीत गाती हुई अभिनय के हेतु जाती हैं तब सींकी में आग लगाकर गाती हैं-
वृन्दावन में आगि लागल है केओ न बुझावय हे...
हमरो से फलाँ भइया....... से हे बुझावय हे........

इस लोक नाट्य में बहनें अपने भाई के स्वास्थय और समृद्धि की कामना लक्ष्मी माता का आह्वान करके करती हैं । और बदले में इस बात की कामना करती हैं कि जब वह दूर अपने ससुराल से कभी माता-पिता से मिलने के लिए आए तो भाई और भाभी उनका आदर करें, जाते समय कुछ-न-कुछ संदेश अवश्य दें, नहीं तो ससुराल में उसकी बेइज्जती हो जाएगी। इस लोक पर्व में कहीं-कहीं नारियों की समाज में जो वास्तविक स्थिति है वह दर्शाती हैं।
सामा-चकेवा के अभिनय काल में कुवांरी लड़कियाँ चंगेरे में मिट्टी के विभिन्न पात्रों को रखकर, दीप जलाकर अपने-अपने सिर पर रखकर खेतों की ओर नाचती-गाती निकल पड़ती हैं और वहां रखकर अभिनय करती हैं। कृष्ण की बाँसुरी बजाती हुई मूर्ति को केन्द्र में रखकर शेष पात्रों को गोलाकार रख दिया जाता है। इसके उपरान्त लड़कियाँ नाचती-गाती हैं। इस अभिनय में कथोपकथन बहुत स्पष्ट रूप में नहीं होता है बल्कि सामूहिक रूप से गाये जानेवाले गीत संवादयुक्त होते हैं। मिट्टी के बने पात्र कन्याओं के माध्यम से प्रतीक रूप में अभिनय में भाग लेते हैं। खेतों में अभिनय की यह क्रिया सम्पन्न होने का तात्पर्य है- उपज में दृद्धि। अंतिम तिथि को जुते खेत में सामा को नया चूड़ा,दही,गुड़ आदि का भोजन कराया जाता है, उसके बाद उसे विसर्जित कर दिया जाता है। यह नृत्य नाट्य मिथिला के सभी वर्गों में लोकप्रिय है।
-प्रीतिमा वत्स

5 comments:

  1. भाई-बहन और सात भाइयों की कई कहानियाँ आदिवासी और ग्रामीण जीवन का हिस्सा हैं. आप इनका documentation कर काफी सराहनीय कार्य कर रही हैं. स्वागत अपनी विरासत को समर्पित मेरे ब्लॉग पर भी.

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  2. मिथिला के इस त्‍यौहार के बारे में जानकर अच्‍छा लगा। मेरे ससुरालवाले मिथिला के ही हैं , पर अब कभीकभार ही जाना हो पाता है। यह त्‍यौहार कैसे मनाया जाता है , जानने की उत्‍सुकता थी , उसमें से थोडी पूरी हुई।

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  3. बातों ही बातों बहुत कुछ कह देने की अप्रितम कला का नाम लोकरंग है। जीवन के सच और रंगों से साक्षात्कार करती आपकी रचनाएं काफी जीवंत लगती हैं। इस प्रकार के लेखन के लिए साधुवाद।
    (आशुतोष पाण्डेय

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  4. apke is article ko pad ke meri purani yaadein taja ho gayi ... jab mai gaon me rahta tha wahi ki larkiye "sama -chakeva " khela karti thi ..

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  5. बहुत अच्छा लगा पढ़कर ।

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