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धान की फसल कटनी शुरु होने के साथ-साथ हीं अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग लोकपर्व शुरु हो जाता है। बिहार झारखंड में जहाँ यह पर्व नवान्न के रूप में मनाया जाता है बस्तर के ग्रामीण इलाके में भी यह पर्व मनाया जाता है,लेकिन एक बदले अंदाज में जिसे हम लछमी जगार के नाम से जानते हैं।
अगहन के महीने में लछमी जगार मनाया जाता है। चारों तरफ कच्चे धान की खुशबू के बीच बड़ी हंसी खुशी के माहौल में यह पर्व मनाया जाता है।
यह पर्व गुड़ी में मनाया जाता है। गुड़ी की साफ-सफाई कर उसके दीवार पर देवी-देवताओं तथा जानवरों के चित्र बनाये जाते हैं। इसे गढ़ लिखना कहते हैं। उसके बाद जमीन पर चावल के आटे से बहुत ही कलात्मक ढंग से चित्रकारी की जाती है, इसे चौक पूरना या बाना लिखना भी कहते हैं।
लछमी जगार का मतलब अन्न लक्ष्मी को जगाना या जागरण करना। कुछ लोग इस शब्द का सम्बन्ध यज्ञ से भी जोड़ते हैं। लगातार आठ-दस दिनों तक सारी रात जागकर लछमी-नारायण की कथा कही- सुनी जाती है। कहीं-कहीं तो यह कथा पंद्रह दिनों तक भी चलती रहती है।
लछमी जगार की कथा प्रायः महिलाएँ ही सुनाती हैं। इन्हें गुरुमायँ कहते हैं। यह कथा गीत के रूप में गा कर सुनायी जाती है। गुरुमायँ यह कथा धनकुल नामक वाद्य बजाते हुए सुनाती हैं।
लछमी जगार के पहले दिन खेतों से धान की बालियाँ लाकर नारियल से उसका विवाह रचाया जाता है, क्योंकि नारियल को भगवान नारायण का रूप माना जाता है। और फिर बड़े ही धूमधाम से शुरु होती है कथा वाचन की प्रक्रिया।
इस व्रत की एक अत्यंत ही रोचक लोककथा भी है जो मैं अभी सहेज नहीं पाई हूँ, इसलिए जल्दी हीं अगले पोस्ट में डालुंगी।
-प्रीतिमा वत्स