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चारों तरफ ढोल -बाजों का आवाजें हैं। लाउडस्पीकर में भोजपूरी भाषा में शारदा सिन्हा की आवाज में,
ले ले अइहो हो भइया गेहूँ के मोटरिया..., आ गइले हो उजे छठ के बरतिया।
अबके बरस में महंगा भइले गेहुँआ......., छोड़ी दही गे बहिना छठ के बरतिया।।
जैसे गीतों से वातावरण गुंजायमान हो रहा है।
हर गली से झुंड में सजे हुए नर-नारी तथा उछलते कूदते बच्चे किसी जलाशय की तरफ चले जा रहे हैं। जी हाँ ............यह छठ पूजा का उत्सव है। जो बिहार,झारखंड तथा उससे सटे हुए कुछ इलाकों में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। हाल के कुछ वर्षों में इस पर्व की लोकप्रियता काफी बढ़ी है। लोक पर्व से यह अब एक महापर्व हो चला है।
कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथी को छठ का पर्व मनाया जाता है। बिहार और झारखंड में यह पर्व सदियों से मनाया जाता रहा है। सूर्य भगवान को समर्पित यह व्रत स्त्रियाँ अपने पति व बच्चों की सलामती तथा स्वास्थय की कामना से करती हैं। कुछ इलाके में इस व्रत को पुरूष भी करते हैं । इस व्रत को करने का विधान भी बड़ा रोचक है। प्रातःकाल उठकर स्नान आदि से निवृत होकर व्रती एक दिन-रात का निर्जल व्रत रखते है। संध्या के समय किसी नदी या सरोवर के पास जाकर अस्त होनेवाले सूर्य की विधिवत पूजा करते हैं कमर भर पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है। बांस के सूप में नारियल, सेब, नारंगी आदि फलों के विभिन्न प्रकार के पकवान सूर्य भगवान को चढ़ाए जाते हैं।जलाशय के किनारे गन्ने,केले तथा अदरक के पौधे से गेट सजाया जाता है। सूर्यास्त के बाद व्रती अपने-अपने घर चले आते हैं तथा रातभर जागकर हर पहर उठ-उठकर सूर्य भगवान की प्रार्थना करते हैं। फिर दूसरे दिन सप्तमी को प्रातःकाल सूर्योदय होने पर स्नान करके सूर्य भगवान को नियम पूर्वक अर्ध्य प्रदान करते हैं। और तब पारण करते हैं।
-प्रीतिमा वत्स
छठ के बारे मे तो अब वह लोग भी जानने लगे हैं जो अब तक उसके बारे मे सुने तक नहीं थे, कहीं विरोध वाली आवाजों से तो कहीं मीडिया तंत्र से। आपकी यह पोस्ट इसी पूजा पर जानकारी से संबंधित है, कुछ इसी मुद्दे पर लेखक प्रदीप बिहारी जी की रचना के बारे मे मेरी आज की पोस्ट है जो कहीं-कहीं कुप्रथाओं पर कुठाराघात भी कर रही है। समय मिले तो अवश्य पढिएगा। Word verification हटा दें तो टिप्पणी करने मे आसानी रहेगी।
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