मूल प्रकृति के छठे
अंश से प्रकट होने के कारण ये षष्ठी देवी कहलाती हैं। बालकों की ये अधिष्ठात्री
देवी हैं। इन्हें विष्णु माया और बालंदा भी कहा जाता है। मातृकाओं में देवसेना के
नाम से ये प्रसिद्ध हैं। उत्तम व्रत का पालन करनेवाली इन साध्वी देवी को स्वामी
कार्तिकेय की पत्नी होने का सौभाग्य प्राप्त है। बालकों को दीर्घायु बनाना तथा
उनका भरण-पोषण एवं रक्षण करना इनका स्वाभाविक गुण है। ये सिद्ध योगिनी देवी अपने
योग के प्रभाव से बच्चों के पास सदा विराजनाम रहती हैं। लोक जीवन में इनकी पूजा
अर्चना विधि-विधान के साथ की जाती है। पूजा के साथ कथा भी प्रचलित है।
प्रियव्रत नाम के एक
राजा थे उनके पिता का नाम था स्वायंभुव मनु। प्रियव्रत योगीराज होने के कारण विवाह
नहीं करना चाहते थे। तपस्या में उसकी विशेष रुचि थी। परंतु ब्रह्मा जी की आज्ञा से
उन्होंने विवाह कर लिया। विवाह के बाद दीर्घकाल तक उन्हें कोई संतान न हो सकी। तब
कश्यपजी ने उनसे पुत्रेष्टि यज्ञ कराया। राजा की प्रेयसी भार्या का नाम मालिनी था।
मुनि ने उन्हें प्रसाद प्रदान किया। प्रसाद को खाने के बाद रानी मालिनी गर्भवती
हुई, परंतु उन्हें एक मृत संतान की प्राप्ति हुई। जिसे देखकर राजा- रानी के
साथ-साथ नगर के सभी लोग अति दुखी हो गये।
राजा प्रियव्रत उस
मृत बालक को लेकर श्मशान घाट गये। उस एकांत भूमि में राजा पुत्र को सीने से लगाकर
विलाप करने लगे। इतने में वहां एक दिव्य विमान दिखाई दिया। तेज से जगमगाते हुए उस
विमान में माता षष्ठी विराजमान थी। उन्होंने राजा के समक्ष आकर अपना परिचय दिया।
स्वाभाव से नरमदिल
राजा ने उस देवी की पूजा अर्चना की, जिससे प्रसन्न होकर देवी ने उसके पुत्र को
जीवित कर दिया और साथ हीं यह भी कहा कि यदि तुम मेरी पूजा अर्चना नियमित करोगे तथा
प्रजा से करवाओगे तो तुम्हें एक सर्वगुण संपन्न पुत्र और पैदा होगा, जिसका नाम
सुव्रत होगा। वह नारायण का कलावतार तथा प्रधान योगी होगा। उसे पूर्व जन्म की सारी
बातें याद रहेंगी। सभी उसका सम्मान करेंगे। त्रिलोक में उसकी कीर्ति फैलेगी। जो
व्यक्ति भी मन से मेरी पूजा अर्चना करेंगे उनके घर में सुख-शान्ति बनी रहेगी। उनके
बच्चे हमेशा स्वस्थ रहेंगे।
राजा ने देवी की
सारी बातें मान लीं और खुशी-खुशी अपने घर आ गया। उनकी पूजा अर्चना में मन लगाने
लगा तथा अपने नगरवासियों को भी उनकी पूजा करने के लिए कहता। देवी की कृपा से राजा
के घर में एक सर्वगुण संपन्न पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम राजा नें देवी के
आदेशानुसार सुव्रत रखा। जो बाद में चलकर बड़ा ही प्रतापी राजा बना। तब से प्रत्येक
मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को भगवती का महोत्सव मनाया जाने लगा।
आज भी देश के कई
हिस्सों में हमारे समाज में कमोवेश इस पूजा का प्रचलन है।
-प्रीतिमा वत्स
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