काले कागज पर बना सोने सा चमकता हुआ पुआल का वॉल हेंगिंग देखकर आज भले ही ज्योति गर्व से भर उठती है, लेकिन बिहार के मुंगेर की रहनेवाली ज्योति ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उसके द्वारा बनाये गए पुआल के टुकड़ों से बना वह वॉल हेंगिंग कभी इस कदर
पसंद की जाएगी। खाली समय में कुछ नया करने की आदत और कला के प्रति उनके झुकाव ने उनकी कला को एक नया पहचान दिया है।
पुआल से बनायी जानेवाली चित्रकारियां
जहां एक ओर काफी खूबसूरत होती है, देश की लोककला और संस्कृति से जोड़ती है, वहीं इसके निर्माण में बहुत कम लागत की जरूरत पड़ती है। पुआल को अच्छी तरह
से झाड़ पोंछकर साफ करके उसके बाहरी आवरण को हटा लिया जाता है, जिससे पुआल की सुंदर-सुंदर चमकीली डंठलें निकल आती हैं। इन डंठलों को किसी
तेज चाकू या ब्लेड की सहायता से बीचों- बीच फाड़कर सीधा कर लिया जाता है। किसी मोटे
किताब के नीचे दबाकर दो या तीन दिनों के लिए इसे रख दिया जाता है। जिससे यह पूरी तरह
से सीधा हो जाए। अब मनचाहे आकार में इसे
काटकर किसी गाढ़े रंग के कागज या कपड़े पर
गोंद की सहायता से चिपकाकर सुंदर-सुंदर आकृतियां बनाई जाती हैं। चाहे वह सोने का दौड़ता
हुआ हिरण हो, अपने बाग में घूमती हुई राधा हो या बाँसुरी बजाते
हुए कृष्ण, इतने आकर्षक लगते हैं ये चित्र कि देखनेवाले का मन
मोह लेते हैं। इन चित्रों को और आकर्षक बनाने के लिए कई बार रंगों का भी इस्तेमाल किया
जाता है। ये रंग प्राकृतिक भी होते हैं। पुआल के साथ-साथ ताड़,पीपल और खजूर के पत्तों से बना वॉल हेंगिंग और ग्रीटिंग्स,टूटी हुई चूड़ियों से,घर के मसालों तथा दाल,चावलों से बनायी जानेवाली कलाकृतियां, सींकी से बनाया
जानेवाला सामान आज न सिर्फ घर की देहरी को पार कर गया है बल्कि
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय
बाजारों में भी अपनी एक खास पहचान बना चुका है। हाल केवर्षोंमेंकई
ऐसेबदलाव हुए हैंजो हमें हमारी लोककला तथा संस्कृति से जोड़ते हैं। फिर चाहे पांच सितारा
होटलों में परोसा जानेवाला केले तथा शकोरे के पत्ते पर कोई देसी व्यंजन हो या इन आलीशान
होटलों में लोककलाओं की लगनेवाली प्रदर्शनियां हों। खूब सराहे और बेचे जाते हैं।ज्योति
की कला, जहां उससे
शौक का एक हिस्सा रही, वहीं इसे अपना रोजगार बनाया है शांति निकेतन
के फाइन आर्ट्स स्नातक अम्बर मुखर्जी ने। दिल्ली हाट में अपने हस्तनिर्मित पुआल की
वॉलहेंगिंग, ग्रीटिंग्स, मधुबनी, मंजूषा,वार्ली पेंटिंग के छोटे-छोटे शोपीस,लकड़ी के बुरादे
से बनी हुई पेंटिंग्स आदि के साथ जब अम्बर कोलकाता से दिल्ली आए तो उनकी आंखों में
कामयाब होने का एक सपना तो जरूर था लेकिन कामयाबी इस कदर सर चढ़कर बोलेगी यह कभी नहीं
सोचा था।आज अम्बर मुखर्जी की कला के खरीददार व्यक्तिगत सम्पर्कों के आधार पर न्यूयार्क
तथा लीवरपूल में भी हैं।प्राचीनकाल में हमारे गांव पूर्णतया आत्मनिर्भर थे और बहुत
सी जरूरत की चीजें गांववासी खुद प्राकृतिक संसाधनों के सहयोग से बना लिया करते थे।
ऐसे में गांव में तरह-तरह की हस्तकलाओंका समुचित विकास भी हुआ।गांव के लोग चटाई,डलिया,पंखा,मौनी,दौरी,ट्रे,पेन स्टैंड आदि चीजें
फुर्सत के क्षणों में एक साथ मिल बैठकर बनाया करते थे। इसमें भी औरतों की भागीदारी
अधिक होती थी।आज भी बिहार,उत्तरप्रदेश,केरल, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा आदि
राज्यों के कई इलाकों में गांव की महिलाएं लोककला में रुचि ले रही हैं। कहीं-कहीं तो
यह कुटीर उद्योग केरूप में भी विकसित हुआ है। इन उद्योगों में न सिर्फ रोजमर्रे की
जरूरत के सामान मिलते हैं बल्कि सजावट के भी कई सामान मिलते हैं। समय-समय पर छोटे-बड़े
शहरों तथा महानगरों में आयोजित हस्तकला मेले में इस तरह के कलाकार भी अपनी-अपनी कृतियोंके
साथ उपस्थित होते हैं, और सराहे जाते हैं।घास-फूस से बनाई जानेवाली
इन कला को सींकी कला के नाम से जाना जाता है।सींकी एक प्रकार का घास है। सींकी से समान
वनाने के लिए पहले इसे गरम पानी तथा रंग के घोल में डालकर सुखा
लिया जाता है, फिर तकुए(एक
प्रकार का औजार)की सहायता से खर पतवार लगाकर जो चीज बनानी होती है, उसका खाका तैयार किया जाता है। इसके बाद विभिन्न रंगों में रंगे गए
बेरुआ(मूंज)
से उसे बुना जाता है। बुनाई के क्रम में विभिन्न प्रकार की फूल-पत्तियां तथा आकृतियां
उकेरी जाती हैं। जो देखने में काफी आकर्षक होती हैं।डलिया,मौनी,दौरी आदि जब बनकर तैयार हो जाते हैं तब उनमें झालर लगायी जाती है। बहुधा झालर
लगाने में स्थानीय नदियों से प्राप्त किए गए घोंघे,सीप आदि का
इस्तेमाल किया जाता है। कई बार सीप और घोंघे के आभाव में रंग-बिरंगे कपड़ों के कतरन
का भी इस्तेमाल किया जाता है। सींकी से थरुहाट (पश्चिमी चम्पारण) की महिलाएं शिव,
लक्ष्मी गणेश आदि की मूर्तियां, बच्चों के खिलौने
आदि बनाती हैं। उड़ीसा के इलाकों में सींकी कला द्बारा वनाए पशु-पक्षी काफी लोकप्रिय
हैं।घरेलू मसालों से बनायी जानेवाली कलाकृति भी कला का बेहतरीन नमूना होता है। इन चीजों
से ज्यादातर प्राकृतिक दृश्य,फूल,पत्तियांआदि
ही बनाई जाती हैं। कभी-कभी देवी-देवताओं के चित्र भी देखने को मिल जातेहैं।घरेलू सामान
से कम खर्च में निर्मित इन बेजोड़ कलाकृतियों की बढ़ती लोकप्रियता को देखकर ऐसा लगता
है मानो गांधी जी का स्वराज का सपना पुनः इस माध्यम से सच होने जा रहा हो। सृजन के
इस तरह के नायाब नमूने को देखकर ही उन्होंने कहा था-“ जहां दो मेहनती और हुनरमंद हाथ
होंगे, वहां कुछ भी संभव हो सकता है।”
-प्रीतिमा वत्स
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