Saturday, August 23, 2014

Experiment with Manjusha painting. (रग मंजूषा कला के)

Manjusha painting is the form that mirrors the myth and feelings of eastern Bihar(India). The Manjusha art is also associated with a religious festival of Ang Janpath- the Bihla Bishari worship and the folk tale related with it. That painting is fairly popular form of art, is an accepted fact. One only has to remind oneself of M.F. Husain and his recent paintings to understand what heights it can achieve. But the rural people of Bihar do not know Husain. The folk painting is the only language of colours and lines that they know.Manjusha painting is the form that mirrors the myth and feelings of eastern Bihar. It has a touch of tribal culture too. Manjusha art forms an integral part of the rich culture heritage og the Ang janapath ( old Bjagalpur Commissionary). This traditional art resembles Madhubani paintion of Mithila,
Zadopatian painting of Santhal pargana, Kolam of Tamil Nadu and Rangoli of Karnataka. Simplicity of form and use of minimum materials are its cornerstones.Like the Madhubani painting, the Manjusha art is also associated with a religious festival of Ang Janath- the Bihla Bishari worship and the folk tale related with it. The main festival is held after the onset of rains in August, at Champamagar, about five kilometres from Bhagalpur railway station. A two- day fair is also held on the occasion. A folk tale is that Chando, a soudagar of Angjanpath was opposed the


worship of Bishari, the Goddess of cobras and he therefore had to face her wrath. His son Bala lakender was bitten by a cobra on the night of his marriage with Bihla. Bihla took her husband away fron Champa for treatment in a newly built boat with a shape of Manjusha, to keep Bala lakender safe from further attacks of the snakes. The walls and canopy of the boat were painted by veteran artist of that time, Lahsan Malli.The beautifuly sketched figures represrnted the prayer to the Goddess. In the painting there were snakes, Bishari, elephant, peacock, sun and moon. The colours used wree pink, green and yellow only. It is said that, since that incident, the tradition of Manjusha paintings has continued to be practised by the Malkhar families of Champanagar.Though the original Manjusha ( boat) was made of metal. the Manjusha built today on the occasion of Bihla-Bishari Puja are made of paper, himp and a frame built of Santhi a light wood. The frame is given a shape of a temple and it rests on eight pillars that form a square shaped room with a door. Then the whole frame is covered with paper on which beautiful paintings depicting the story of Bihla- Bishari are made. The snake is sketched in different painted as symbols for depicting the sky.The folk songs related with Bihla - Bishari van easily be seen to have a ready expression in the Manjusha art paintings. Along with the symbolism and liveliness of the characters. Manjusha art is very rich in colour combination and the original shade of paper used.the Manjusha artist also gives equal attention to the decoration of the art piece with the very effective user of the Mihrabs and borders. These Mihrabs provide an identity to the Manjusha painting. Unfortunately today, the Manjusja art is on its decline. For some time this form of art was practised by a few Malkhar families of Champanagar, but they too seem to have lost interest in it.This unique traditional painting which formed an inseparable part of centuries of Ang culture is now facing threat for want of patrons and onslought of consumerism. There is an urgent need to establish production canters at different spots besides providing financial assistance to the artists. To save Manjusha, it must be made commercially viable.

First ,second and third paintings are traditional manjusha painting.
In tradional Manjusha paintings only three colours-pink,green& yellow used. All paintings are in water colour. Art by- Pritima Vats.

Friday, August 22, 2014

हुनरमंद हाथोंकी हाजिर जबावी HUNARMAND HATHON HI HAZIRJAWABI.


काले कागज पर बना सोने सा चमकता हुआ पुआल का वॉल हेंगिंग देखकर आज भले ही ज्योति गर्व से भर उठती है, लेकिन बिहार के मुंगेर की रहनेवाली ज्योति ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उसके द्वारा बनाये गए पुआल के टुकड़ों से बना वह वॉल हेंगिंग कभी इस कदर पसंद की जाएगी। खाली समय में कुछ नया करने की आदत और कला के प्रति उनके झुकाव ने उनकी कला को एक नया पहचान दिया है।


पुआल से बनायी जानेवाली चित्रकारियां जहां एक ओर काफी खूबसूरत होती है, देश की लोककला और संस्कृति से जोड़ती है, वहीं इसके निर्माण में बहुत कम लागत की जरूरत पड़ती है। पुआल को अच्छी तरह से झाड़ पोंछकर साफ करके उसके बाहरी आवरण को हटा लिया जाता है, जिससे पुआल की सुंदर-सुंदर चमकीली डंठलें निकल आती हैं। इन डंठलों को किसी तेज चाकू या ब्लेड की सहायता से बीचों- बीच फाड़कर सीधा कर लिया जाता है। किसी मोटे किताब के नीचे दबाकर दो या तीन दिनों के लिए इसे रख दिया जाता है। जिससे यह पूरी तरह से सीधा हो जाए। अब मनचाहे आकार में इसे 

काटकर किसी गाढ़े रंग के कागज या कपड़े पर गोंद की सहायता से चिपकाकर सुंदर-सुंदर आकृतियां बनाई जाती हैं। चाहे वह सोने का दौड़ता हुआ हिरण हो, अपने बाग में घूमती हुई राधा हो या बाँसुरी बजाते हुए कृष्ण, इतने आकर्षक लगते हैं ये चित्र कि देखनेवाले का मन मोह लेते हैं। इन चित्रों को और आकर्षक बनाने के लिए कई बार रंगों का भी इस्तेमाल किया जाता है। ये रंग प्राकृतिक भी होते हैं। पुआल के साथ-साथ ताड़,पीपल और खजूर के पत्तों से बना वॉल हेंगिंग और ग्रीटिंग्स,टूटी हुई चूड़ियों से,घर के मसालों तथा दाल,चावलों से बनायी जानेवाली कलाकृतियां, सींकी से बनाया जानेवाला सामान आज न सिर्फ घर की देहरी को पार कर गया है बल्कि
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजारों में भी अपनी एक खास पहचान बना चुका है। हाल केवर्षोंमेंकई ऐसेबदलाव हुए हैंजो हमें हमारी लोककला तथा संस्कृति से जोड़ते हैं। फिर चाहे पांच सितारा होटलों में परोसा जानेवाला केले तथा शकोरे के पत्ते पर कोई देसी व्यंजन हो या इन आलीशान होटलों में लोककलाओं की लगनेवाली प्रदर्शनियां हों। खूब सराहे और बेचे जाते हैं।ज्योति की कला, जहां उससे शौक का एक हिस्सा रही, वहीं इसे अपना रोजगार बनाया है शांति निकेतन के फाइन आर्ट्स स्नातक अम्बर मुखर्जी ने। दिल्ली हाट में अपने हस्तनिर्मित पुआल की वॉलहेंगिंग, ग्रीटिंग्स, मधुबनीमंजूषा,वार्ली पेंटिंग के छोटे-छोटे शोपीस,लकड़ी के बुरादे से बनी हुई पेंटिंग्स आदि के साथ जब अम्बर कोलकाता से दिल्ली आए तो उनकी आंखों में कामयाब होने का एक सपना तो जरूर था लेकिन कामयाबी इस कदर सर चढ़कर बोलेगी यह कभी नहीं सोचा था।आज अम्बर मुखर्जी की कला के खरीददार व्यक्तिगत सम्पर्कों के आधार पर न्यूयार्क तथा लीवरपूल में भी हैं।प्राचीनकाल में हमारे गांव पूर्णतया आत्मनिर्भर थे और बहुत सी जरूरत की चीजें गांववासी खुद प्राकृतिक संसाधनों के सहयोग से बना लिया करते थे। ऐसे में गांव में तरह-तरह की हस्तकलाओंका समुचित विकास भी हुआ।गांव के लोग चटाई,डलिया,पंखा,मौनी,दौरी,ट्रे,पेन स्टैंड आदि चीजें फुर्सत के क्षणों में एक साथ मिल बैठकर बनाया करते थे। इसमें भी औरतों की भागीदारी अधिक होती थी।आज भी बिहार,उत्तरप्रदेश,केरल, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा आदि राज्यों के कई इलाकों में गांव की महिलाएं लोककला में रुचि ले रही हैं। कहीं-कहीं तो यह कुटीर उद्योग केरूप में भी विकसित हुआ है। इन उद्योगों में न सिर्फ रोजमर्रे की जरूरत के सामान मिलते हैं बल्कि सजावट के भी कई सामान मिलते हैं। समय-समय पर छोटे-बड़े शहरों तथा महानगरों में आयोजित हस्तकला मेले में इस तरह के कलाकार भी अपनी-अपनी कृतियोंके साथ उपस्थित होते हैं, और सराहे जाते हैं।घास-फूस से बनाई जानेवाली इन कला को सींकी कला के नाम से जाना जाता है।सींकी एक प्रकार का घास है। सींकी से समान वनाने के लिए पहले इसे गरम पानी तथा रंग के घोल में डालकर सुखा लिया जाता है, फिर तकुए(एक प्रकार का औजार)की सहायता से खर पतवार लगाकर जो चीज बनानी होती है, उसका खाका तैयार किया जाता है। इसके बाद विभिन्न रंगों में रंगे गए 
बेरुआ(मूंज) से उसे बुना जाता है। बुनाई के क्रम में विभिन्न प्रकार की फूल-पत्तियां तथा आकृतियां उकेरी जाती हैं। जो देखने में काफी आकर्षक होती हैं।डलिया,मौनी,दौरी आदि जब बनकर तैयार हो जाते हैं तब उनमें झालर लगायी जाती है। बहुधा झालर लगाने में स्थानीय नदियों से प्राप्त किए गए घोंघे,सीप आदि का इस्तेमाल किया जाता है। कई बार सीप और घोंघे के आभाव में रंग-बिरंगे कपड़ों के कतरन का भी इस्तेमाल किया जाता है। सींकी से थरुहाट (पश्चिमी चम्पारण) की महिलाएं शिव, लक्ष्मी गणेश आदि की मूर्तियां, बच्चों के खिलौने आदि बनाती हैं। उड़ीसा के इलाकों में सींकी कला द्बारा वनाए पशु-पक्षी काफी लोकप्रिय हैं।घरेलू मसालों से बनायी जानेवाली कलाकृति भी कला का बेहतरीन नमूना होता है। इन चीजों से ज्यादातर प्राकृतिक दृश्य,फूल,पत्तियांआदि ही बनाई जाती हैं। कभी-कभी देवी-देवताओं के चित्र भी देखने को मिल जातेहैं।घरेलू सामान से कम खर्च में निर्मित इन बेजोड़ कलाकृतियों की बढ़ती लोकप्रियता को देखकर ऐसा लगता है मानो गांधी जी का स्वराज का सपना पुनः इस माध्यम से सच होने जा रहा हो। सृजन के इस तरह के नायाब नमूने को देखकर ही उन्होंने कहा था-“ जहां दो मेहनती और हुनरमंद हाथ होंगे, वहां कुछ भी संभव हो सकता है।”
-प्रीतिमा वत्स

Aangan me Tulsi Chaura (एंगना मॅ तुलसी चौरा)

दुनिया के सब आपाधापी सॅ थकी क जबS दिन दुपहरिया घोर जाय छेलियै त एंगना मॅ तुलसी के लहलहैलो पौधा देखी क जी जुड़ाय जाय छेलै। जहिया सॅ महानगर ...