पण्डवानी लोक की एक ऐसी गायकी है जिसमें महाभारत के पात्र
पाण्डवों की गाथा है। महाभारत का यह लोकस्वरुप इतना अदभुत है कि इसे प्रस्तुत करने
वाले कलाकार इसे निरंतर परिमार्जित करते रहे हैं। अपने समय को इस लोककाव्य का
हिस्सा बनाकर प्रस्तुत करने के कारण ही पण्डवानी बहुत कम समय में ही हर सुनने वाले
को अपने से जोड़ लेती है।
आवश्यकता और समय के साथ पण्डवानी गायन शैली में कुछ-कुछ
परिवर्तन होते रहे हैं। आज पण्डवानी की एक नयी शैली सामने आयी है। इस शैली में कथावाचन और अभिनय दोनों एक दूसरे के
पूरक की तरह सामने आते हैं। पण्डवानी की इस रोचक और कुछ अधिक ग्राह्य शैली को रुपक
शैली की संज्ञा दी जाए तो गलत न होगा । हालांकि इस शैली के विकास को लेकर वैचारिक
मदभेद सामने आते हैं। एक ओर जहां इस शैली के विकास के लिए आन्ध्र प्रदेश की बुर्रा
कथा को जिम्मेदार मानते हैं, जिसकी उपस्थिति छत्तीसगढ़ क्षेत्र में वर्षों तक रही
है, वहीं दूसरी ओर वर्तमान पण्डवानी गायक मानते हैं कि समय की मांग के अनुरूप ही
उन्होंने पण्डवानी में नाट्य प्रकृति का समावेश किया है।
फोटोग्राप्स नेट से साभार।
नर्मदा और महानदी के बीच बसी आदिवासी संस्कृति में पली-बढ़ी
इस वाचिक परंपरा को निभाने का कार्य मुख्य रुप से गोंड जनजाति के लोग करते आये
हैं। ऐसा माना जाता है कि गोंड जनजाति की उपजातियों ‘परधान’ व ‘देवार’ के लोगों ने
पण्डवानी के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। परधानों को जहां जजमानों
के यहां कथा वाचन के जरिये पण्डवानी पहुंचाने का श्रेय दिया जाता है, वहीं देवारों
को छत्तीसगढ़ में घुमन्तू की तरह घूम-घूम कर पण्डवानी के प्रचार-प्रसार का श्रेय
प्राप्त है।
आवश्यकता और समय के साथ पण्डवानी गायन शैली में कुछ-कुछ
परिवर्तन होते रहे हैं। आज पण्डवानी की एक नयी शैली सामने आयी है। इस शैली में कथावाचन और अभिनय दोनों एक दूसरे के
पूरक की तरह सामने आते हैं। पण्डवानी की इस रोचक और कुछ अधिक ग्राह्य शैली को रुपक
शैली की संज्ञा दी जाए तो गलत न होगा । हालांकि इस शैली के विकास को लेकर वैचारिक
मदभेद सामने आते हैं। एक ओर जहां इस शैली के विकास के लिए आन्ध्र प्रदेश की बुर्रा
कथा को जिम्मेदार मानते हैं, जिसकी उपस्थिति छत्तीसगढ़ क्षेत्र में वर्षों तक रही
है, वहीं दूसरी ओर वर्तमान पण्डवानी गायक मानते हैं कि समय की मांग के अनुरूप ही
उन्होंने पण्डवानी में नाट्य प्रकृति का समावेश किया है।
पण्डवानी गायन शैली को जनजातीय क्षेत्रों से बाहर लाकर
जनरुचि की कला के रुप में प्रचारित- प्रसारित करने और उसे विश्व सांस्कृतिक पटल पर
स्थापित करने का कार्य जिन्होंने किया है, उनमें तीजन बाई का नाम सबसे आगे है।
तीजन बाई को उनकी गायकी और पण्डवानी पर इतना भरोसा है कि, वो कहती हैं- गायन
परंपरा, जिस महाभारत महाकाव्य पर आधारित है, वह अमर है। बस इसलिए यह परंपरा हमेशा
जीवित रहेगी।
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प्रीतिमा वत्स




