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भगतिया, यानी भगताय या भक्ति के गीत गाने वाले। इसे नारदी-भजन भी कहा जाता है। कभी गांव में विवाह उत्सव , जन्मोत्सव , नामकरण संस्कार या कि श्राद्घ कर्म भगतियों के बिना पूरा नहीं होता था। पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुनकर याद रखी जाने वाली गायन की यह परंपरा बिहार और झारखंड के सीमा पर के कुछ गांवों में अपने मौलिक और प्राथमिक रूप में मौजूद है। पाश्चात्य संगीत के ताने-बाने का इस परंपरा पर कोई असर नहीं पड़ सका है, तो इसके पीछे लोक की वही उष्मा और संस्कार है, जहां कैसे गाएं या कि कैसे बजाएं कि जगह ‘ऐसे गाएं और ऐसे बजाएं’ की प्रथा है।
झारखंड के गोड्ïडा जिले के एक भगतिया कंचन मंडल नारद जी को संसार का पहला भगतिया मानते है - ‘लोकगायन की इस शैली की शुरूआत नारद जी ने प्रभु की स्तुति से की थी। :-
केशव कल्प कथारंभ-मामनु केषम।
दीनमनुनाथम-कुरुभवसागर पारम्ï॥
भगताय में गाये जाने वाले मैथिली, हिन्दी, ब्रजभाषा, अवधि मिश्रित भक्ति गीत सरल और निश्छल मिलते हैं। इनका कोई स्पष्ट व्याकरण नहीं है। वस्तुत: भगतियों का संगीत शास्त्रीय और लोकसंगीत के बीच की कड़ी है। यह जनसमूह का संगीत है ,जो संस्कार के सैलाब में सराबोर किसी भी व्यक्ति के कंठ से अनायास ही फूट पड़ती है। इसकी सरलता लोगों के अंतर्मन को गहरे छूती है। इनकी गायकी मुख्य रूप से कृष्ण की लीलाओं के गिर्द घूमती है।
पेशे से शिक्षक कंचन मंडल अपने दल के मूलगैन हैं। उनसे इस परंपरा पर कुछ विस्तार से बात होती है तो वे बताते हैं- ‘भगतियों द्वारा गाये जाने वाले पद उनके अपने होते हैं परन्तु ये मुख्य रूप से पीलू, काफी विलावल, भैरवी, भूप, भूपाली और सारंग आदि रागों पर आधारित लगते हैं। उसी तरह भगतिया संगीत का स्वरूप भी बिल्कुल उनका अपना होते हुए शास्त्रीय तालों- कहरवा, रूपक और झपताल के निकट माना जाता है।’
भगतियों के समूह को ‘दल’ कहा जाता है। दल का प्रधान ‘मूलगैन’ कहलाता है। भगतियों के दल का प्रमुख वाद्य यंत्र मृदंग होता है और प्राय: कोई मृदंगिया ही दल का मूलगैन होता। मूलगैन का मुख्य शार्गिद एक नर्तक होता है, जिसे ‘नटुआ’ कहते हैं। गायन पद की शुरुआत करने वाला ‘अगुआ’ कहलाता है और उसके पीछे गाने वाले ‘पक्षक’ कहलाते हैं। साधारणत: इनके गायन के दो रूप हैं। प्रथम अंग में ये बिलंबित स्वर में गाते है अर्थात अगुआ पहले गाता है और पक्षक उसी का अनुकरण करते है। दूसरे अंग द्रुत है। जहां गायन की गति किसी बेगवान घोड़े की तरह हो जाती है। स्वरों का यह गतिशील करिश्मा कुछ मिनटों तक ही चलता है और फिर इसकी समाप्ति एक झटके के साथ हो जाती है। गायन और वादन के बीच सामंजस्य बनाकर नटुआ कभी राधा , कभी मीरा ,कभी जोगन, कभी दही बेचने वाली आदि के रूप बनाकर नाचता रहता है।
मनोरंजक संसाधनों की बहुतायत तथा व्यक्ति के बदलते पसंद के चलते हाल के वर्षों में भले ही इस गायकी का स्वर कुछ फीका पड़ गया लगता है, लेकिन भगताय गाने वाले हर हाल में रहेंगे, क्योंकि गायन की यह परंपरा एक विश्वास पर टिकी है।
-प्रीतिमा वत्स