Sunday, September 13, 2009
दिवाल चित्रण की संथाली शैली
संथाल आदिवासियों में दिवाल चित्रण की एक समृद्ध परंपरा रही है। इतिहास को तलाशें या फिर मानवीय. सौन्दर्य की अनुभूति की बात करें तो चित्रांकन की प्रवृति आदिम प्रवृति से जुड़ी हुई है। दिवाल चित्रण का पहला उदाहरण गुफा चित्र के रूप में पाते हैं। भारत के इतिहास में उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर के निकट कैमूर की पहाड़ियों में अंकित चित्र को पहली उपलब्धि के रूप में देख सकते हैं। इसके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश के बांदा तथा मध्य प्रदेश के रायगढ़,होशंगाबाद,भोपाल आदि जगहों पर गुफा चित्र मिले हैं। बिहार के संदर्भ में शाहाबाद,चक्रधरपुर,राजगृह तथा इस्को के गुफा चित्रों को ले सकते हैं। रामायण और महाभारत काल में भवनों के वर्णन में दिवाल चित्रण की भी व्याख्या मिलती है।
संथाल आदिवासियों के चित्रों को दो क्षेत्रों में विभक्त किया जा सकता है- एक संथाल परगना का क्षेत्र और दूसरा छोटानागपुर। इन दोनों क्षेत्रों के रहन-सहन, आचार-विचार,जीवन शैली में भिन्नता के साथ-साथ चित्र बनाने के तकनीक तथा आकार में भी भिन्नता है।
संथाल परगना के दिवाल चित्र में प्राचीन तथा परंपरागत शैली ज्यादातर देखने को मिलती है वहीं छोटानागपुर के इलाकों में आधुनिकता का भाव हावी रहता है। संथाल परगना के चित्र जहां दीवाल से थोड़ा उभार लिए हुए होते हैं वहीं छोटानागपुर के चित्र समतल होते हैं तथा इनमें रंगों की प्रधानता होती है।
संथाल परगना के चित्रों में जहां मोर, मछली, ज्यामीतिय आकार के फूल तथा बेलों की प्रधानता अभी भी देखने को मिलती है वहीं छोटानागपुर के चित्रों में तरह-तरह के फूल,बस, एरोप्लेन आदि भी बनने लगे हैं।
दिवाल चित्रण का कार्य ज्यादातर सोहराय पर्व के अवसर पर किया जाता है। यह पर्व जनवरी के महीने में मनाया जाता है। कृषि के काम से निवृत होने के बाद जब ये लोग फसल अपने घर ले आते हैं तब थोड़ा फुर्सत का समय होता है। महिलाएं तनमयता से अपने-अपने घरों का मरम्मत करने में जुट जाती हैं। बारिश में खराब हुए दीवरों को अपने कुशल हाथों से संवारती हैं। फोताहोसा (घर लिपाई की एक खास मिट्टी) से घरों को लिपने के साथ हीं यह तय कर लिया जाता है कि किस दिवाल तथा दरवाजों के ऊपर कौन सी आकृतियाँ बनाई जाएंगी। उभार वाले चित्र के लिए डिजाइन के अनुरूप कच्चे दिवाल पर खुरपी, करनी तथा अन्य सहायक उपकरणों की मदद से मिट्टी को काट कर आकृति को उभारा जाता है। यह विधि झारखंड के संथाल परगना क्षेत्र में काफी प्रचलित है। छोटानागपुर में प्रायः चित्र समतल बनाए जाते हैं। दिवाल की सतह पर सफेद खड़िया की सहायता से डिजाइन बनाया जाता है, फिर रंग भरा जाता है। रंग भी करीब-करीब सभी प्राकृतिक ही होते हैं। झारखंड के जमीन की यह विशेषता ही है कि यहां लाल, पीली, काली, सफेद कई तरह की मिट्टी मिलती है। जिसे यहां के स्थानीय निवासी अपने हिसाव से विभिन्न उपयोगों में लाते हैं। घर लीपने से लेकर सर के बाल धोने तक के कामों ये मिट्टी उपयोगी होते हैं।
आधुनिकता की हवा और बाजार के बयार के बावजूद भी संथाली दिवाल चित्रण की शैली अपनी कुछ खास विशेषताओं के कारण भीड़ से अलग दिखती है। जो हमें यह सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि संथाल आदिवासियों के पास अलंकरण के प्रति एक दृष्टि है।
-प्रीतिमा वत्स
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बढ़िया जानकारी, आभार.
ReplyDeleteिस रोचक जानकारी के लिये धन्यवाद्
ReplyDeleteआज दिनांक 31 मई 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी यह पोस्ट सौंदर्य का विस्तार शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। आप दिल्ली के पास ही हैं इसलिए जनसत्ता आपको मिल सकता है। वैसे आप http://blogonprint.blogspot.com/ पर आपकी प्रकाशित पोस्ट का स्कैनबिम्ब देख और सहेज पायेंगी।
ReplyDeleteकोई कठिनाई होने पर आप मुझे ई मेल avinashvachaspati@gmail.com कर सकती हैं। सादर/सस्नेह
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