झारखंड के लोक में दूर्वा(हरीघास) का बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है। लोक कथाओं में इसे अमरत्व का वरदान प्राप्त है, तो लोकगीतों के माध्यम से भी इसकी महानता दर्शायी जाती रही है। ऐसी मान्यता है कि जिस जगह ये उपस्थित है वहाँ समृद्धि और सुख हमेशा रहेगा। इसलिए हर पारम्परिक उत्सव,पर्व-त्योहार तथा शुभ कार्यों में तुलसी की तरह ही दुर्वादलों का भी उपयोग किया जाता है।
दुबिया कहे हम जमबे करब।
आहो दुबिया कहे हम जमबे करब।।
कबो लतो तर परब, कबो जूतो तर परब।
श्री गणेश जी के सिर पर चढ़बे करब।।
दुबिया .........................................।
कतो खुरपी चले, कतो कुदाली चले।
दुई धार के हँसुआ से कटबे करब।
दुई यौवन के पेटवा हम भरवे करब।।
दुबिया.......................................।
नई दुल्हनिया के खोइचा हम भरबे करब।
हर सुहागिन के आशिष हम दियबे करब।।
दुबिया.......................................।
इस गीत के माध्यम से हरी-हरी घास जिसे हम दुर्वा भी कहते है, उसकी महत्ता को दर्शाया गया है।
दुर्वा कहती है, हम तो हर हाल में उगेंगे (जन्म लेंगे)। कभी पैर के नीचे पड़ती हूँ, कभी जूतों से कुचली जाती हूँ।
पर श्री गणेश जी के सिर पर तो चढ़ती ही हूँ।
कभी खुरपी से उखाड़ी जाती हूँ तो कभी कुदाली से।
कभी हँसुए (दराँती) से काटी जाती हूँ।
पर पशुओं का पेट मैं हमेशा भरती हूँ।
नई दुल्हिन का खोइचा मेरे द्वारा हमेशा भरा जाता है।
सुहागिनों को मैं हमेशा आशिर्वाद देती हूं।
दुर्वा कहती है, मैं हमेशा उगती (जन्म लेती ) रहूंगी।
-प्रीतिमा वत्स
लोक संस्कृति को जीवित रखने की अच्छी कोशिश प्रतिमा जी। मिथिला में भी किसी शुभ अवसर पर वेद मंत्रों के साथ अग्रजों द्वारा दुर्बाक्षत दिया जाता है।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
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लोक संस्कृ्ति में दूर्वा का महत्व तो इसी से स्पष्ट हो जाता है कि भगवान गणपति की पूजा उपासना में इसे प्रमुखता प्रदान की गई है।
ReplyDeleteआज पहली बार आपके ब्लाग पर आने का अवसर मिला। अपनी लोक संस्कृ्ति से परिचित करने का बहुत ही उम्दा कार्य कर रही हैं आप।
आभार!!
हमेशा की तरह बहुत अच्छा लगा. दुर्वा और उसकी महत्ता को जाना, आपका आभार.
ReplyDeleteanupam aalekh
ReplyDeletemubaaraq ho..................