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आषाढ़ का महीना आते ही बस्तर के लोगों की चहल-पहल देखते ही बनती है। सीरासार के सामने जगन्नाथ गुड़ी (मंदिर) में भगवान जगन्नाथ -बलराम-सुभद्रा की पूजा विधि-विधान के साथ की जाती है। यह लोक की विशेषता ही है कि हर काम के पीछे कुछ कथाएँ कुछ किंवदन्तियाँ होती हैं. जो मनोरंजक होने के साथ-साथ शिझाप्रद भी होती हैं।
इस पूजा के पीछे एक बहुत ही प्रचलित लोककथा है-बस्तर के महाराजापुरुषोत्तम देव को एक बार भगवान जगन्नाथ ने सपने में दर्शन देकर जगन्नाथपुरी(ओडीसा) जाने को कहा। राजा पुरुषोत्तम देव अपने कुछ लोगों के साथ पैदल ही जगन्नाथपुरी के लिए चल पड़े। उधर जगन्नाथपुरी में, आषाढ़ शुक्ल पझ द्वितीया के दिन भगवान जगन्नाथ का रथ खींचा ही जा रहा था कि रथ रुक गयाघ सभी अचरज से भर गये। तब पुरी-मुखिया गजपति राजा ने कहा कि जरुर अभी भगवान जगन्नाथ का कोई भक्त यहाँ नहीं पहुँचा है। तभी बस्तर- महाराजा पुरुषोत्तम देव वहाँ पहुँचे और रथ खींचने लगे तो रथ चल पड़ा। इससे लोगों ने भगवान और भक्त राजा पुरुषोत्तम देव की जय-जयकार की। उसी समय राजा गजपति ने पुरुषोत्तम देव को रथपति कहा और बस्तर में भी बारह चक्कों का रथ चलाने की सलाह दी। वहाँ से लौटने के बाद बस्तर - महाराजा ने जगदलपुर में गोन्चा और दशहरा के समय रथ चलाने की रस्म शुरु की।
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आषाढ़ के महीने में मनाये जाने वाले रथयात्रा पर्व को गोन्चा कहने के पीछे भी एक लोक कथा है। पौराणिक काल में राजा इन्द्रद्युम्न थे, उनकी रानी का नाम था गुंडिचा। यह उत्सव उन्हीं गुंडिचा रानी के नाम पर मनाया जाता है। गुंडिचा ही आगे चलकर गोन्चा हो गया।
विष्णु भगवान के भक्त इन्द्रद्युम्न और उनकी रानी गुंडिचा भगवान का दर्शन पाना चाहते थे। एक दिन भगवान ने उन्हें सपने में आकर कहा कि वे उनका दर्शन नीलगिरि की गुफा में कर सकते हैं। राजा और रानी यह जानते थे कि शबर राजा विश्वावसु नीलगिरि की गुफामें भगवान नीलमाधव की पूजा किया करते हैं। उन्होंने अपने राजपुरोहित विद्यापति को भगवान नीलमाधव की मूर्ति के लिए भेजा। राजपुरोहित छल करके वह मुर्ति जगन्नाथपुरी ले आये। किन्तु भगवान जगन्नाथ ने एक रात सपने में राजा इन्द्रद्युम्न को दर्शन दिया और कहा कि महासागर के तट पर लकड़ी का एक टुकड़ा मिलेगा, जिससे श्रीकृष्ण,बलराम, और सुभद्रा की मूर्तियाँ बनवा लेना। दूसरे दिन राजा को महासागर के किनारे व ऐसी ही लकड़ी मिली। उन्होंने उसे उठा लिया और राजमहल ले आये। मूर्तियाँ बनाने के लिए विश्वकर्मा जी स्वयं एक कलाकर के वेश में वहाँ आए। उन्होने शर्त रखी कि वे एक बन्द कमरे में मूर्तियाँ बनाएँगे। उन्हें कोई तंग न करें। वे कमरे में बन्द होकर मूर्तियाँ बनाने लगे। कई दिनों के बाद जब कमरे से छेनी-हथौड़ी की कोई आवाज सुनाई नहीं पड़ी तो रानी गुंडिचा को डर लगा कि कहीं कलाकर, जो काफी बूढ़ भी था, मर न गया हो। उन्होंने दरवाजा तुड़वाया तो देखा कि कलाकार वहाँ नहीं था। मूर्तियाँ अधूरी बनी थीं। इसी से इस पर्व का नाम गुंडिचा हुआ। यहीं गुंडिचा आगे चलकर गोन्चा हो गया।
-प्रीतिमा वत्स