किसानों के लिये कुछ समय ऐसा होता है जब कोई उत्पादन नहीं होता है, मतलब खेती के लिये उस समय कोई काम नहीं होता। रोजी रोटी की तलाश में तब वो दूर परदेश जाते हैं। परदेश गये इन पतियों के वियोग को महिलाएं अपने गीतों में व्यक्त करती हैं। पति वियोग में गाये इन गीतों को बिरहा कहा जाता है।
आज भी कभी-कभार सुनने को मिल जाते हैं बिरहा के गीत । लेकिन अब मौका किसी संगीत समारोह का होता है या स्टेज शो। गानेवाले होते हैं कोई सधे हुए कंठ।
रंगमहल में सोचै प्यारी धनिया
बिरहा सतावै दिर-राती बिरहनियां
गौना करये छेला देहरी बैसाये गेल
अपने जे गेल परदेश परदेशिया।।
रंग महल में सोचै प्यारी धनिया..........।
सावन सुहावन लागती
पिया बिनु कुछ नहीं भावती
निस विरह सतावती
बतला दे प्यारे पियू कहाँ।।
सावन सुहावन लागती.........।।
सरीस मास ऋतु फागुन मास
नहीं रे शरद नहीं घाम
किनका संग हम होली खेलब
नहीं रे मोहनी यही ठाम।।
सरीस मास ऋतु फागुन मास..........।।
-प्रीतिमा वत्स
Thursday, February 12, 2009
Sunday, February 8, 2009
अंगिका के फेकड़े
बिहार के अंगजनपद में(वर्तमान भागलपुर तथा उसके आस -पास के इलाकों में) अंगिका भाषा बोली जाती है। यह भाषा जितनी मधुर है उतनी ही समृद्ध भी। मुहावरे और लोकोक्तियाँ तो इस भाषा की जान हैं जैसे। इन लोकोक्तियों को अंगिकाभाषी फेकड़ा कहते हैं। बहुत बड़ी-बड़ी बातो को इन लोकोक्तियों के जरिए बड़े कम शब्दों में आसानी से कह दी जाती है।
मांय करै कुटौना पिसौना
बेटा के नाम दुर्गादास।
माँ घर-घर जाकर नौकरानी का काम करती है अथवा कठिन परिश्रम करती है और बेटे के नखरे तो कहे नहीं जाते।
नोन् तेलो रोस
भंसिया हाथॉ जस।
नमक तेल की सही मात्रा से ही खाने में स्वाद आता है। और यह स्वाद ही खाना बनाने वाले(भंसिया) को तारीफ दिलाता है। अर्थात उनके हाथों में यश देता है।
घरँ भूँजी भाँग नाय्
डेढ़ी पर नाच।
घर में खाने के लाले पड़े हों और दिखावे का आलम ऐसा कि दरवाजे पर नाच-गाना करवा रहे हैं।
मिलै मियाँ क् माँड़ नाय
खोजै मियाँ ताड़ी।
मनुष्य को सीधा-सादा जीवन गुजारना मुश्किल हो,भोजन भी कठिनाई से मिलता हो,
फिर भी चाह हमेशा विलासिता के वस्तुओं की ही रहती है।
-प्रीतिमा वत्स
मांय करै कुटौना पिसौना
बेटा के नाम दुर्गादास।
माँ घर-घर जाकर नौकरानी का काम करती है अथवा कठिन परिश्रम करती है और बेटे के नखरे तो कहे नहीं जाते।
नोन् तेलो रोस
भंसिया हाथॉ जस।
नमक तेल की सही मात्रा से ही खाने में स्वाद आता है। और यह स्वाद ही खाना बनाने वाले(भंसिया) को तारीफ दिलाता है। अर्थात उनके हाथों में यश देता है।
घरँ भूँजी भाँग नाय्
डेढ़ी पर नाच।
घर में खाने के लाले पड़े हों और दिखावे का आलम ऐसा कि दरवाजे पर नाच-गाना करवा रहे हैं।
मिलै मियाँ क् माँड़ नाय
खोजै मियाँ ताड़ी।
मनुष्य को सीधा-सादा जीवन गुजारना मुश्किल हो,भोजन भी कठिनाई से मिलता हो,
फिर भी चाह हमेशा विलासिता के वस्तुओं की ही रहती है।
-प्रीतिमा वत्स
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