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छऊ नृत्य में कंठ-संगीत गौण होता है और वाद्य-संगीत का प्रधानता होती है। चटख रंग के कपड़े पहनना तथा मुखौटा धारण करना इस नृत्य के लिए आवश्यक होता है।
छऊ नृत्य नाटिका पश्चिम बंगाल, बिहार और उड़ीसा के पडोसी राज्यों में आज भी अपने पारंपरिक रूप में देखने को मिलती है। इन राज्यों में यह नृत्य वार्षिक सूर्य पूजा के अवसर पर की जाती है। पश्चिम बंगाल के पुरुलिया और मिदनापुर जिलों के कुछ क्षेत्रों में इस नृत्य में रामायण की पूरी कथा पर होती है, जबकि अन्य जगहों पर रामायण और महाभारत तथा पुराणों में वर्णित अलग-अलग घटनाओं को आधार बनाकर यह नृत्य किया जाता है।
पश्चिम बंगाल में नृत्य खुले मैदान में किया जाता है। इसके लिए लगभग 20 फुट चौड़ा एक घेरा बना लिया जाता है, जिसके साथ नर्तकों के आने और जाने के लिए कम से कम पांच फुट का एक गलियारा जरूर बनाया जाता है। जिस घेरे में नृत्य होता है, वह गोलाकार होता है। सभी बजनिए अपने-अपने बाजों के साथ एक तरफ बैठ जाते हैं। प्रत्येक दल के साथ उसके अपने पांज या छह बजनिए होते हैं। घेरे में किसी प्रकार की सजावट नहीं की जाती और कोई ऐसी चीज भी नहीं होती जो इस नृत्य के लिए अनिवार्य समझी जाती हो।
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दर्शक खुली जमीन पर गोलाकार बैठ जाते हैं, लेकिन महिला दर्शकों के बैठने के लिए विशेष व्यवस्था की जाती है। उनके बैठने के लिए लकड़ी के तख्तों से छह या सात फुट ऊंजा अस्थाई मंच बनाया जाता है। मंच, आदमी के कद से थोड़ा ऊंचा होता है। जगह की कमी हैने पर पुरुष दर्शक उसके नीचे भी खड़े हो जाते हैं। यह नृत्य देर रात से शुरु होकर सुबह तक चलता है।
इस नृत्य के वस्त्रों की कुछ विशेषताएं हैं, जो इस क्षेत्र अथवा बंगाल के किसी अन्य भाग में प्रचलित दूसरे प्रकार के कलात्मक प्रदर्शनों के वस्त्रों में अकसर नहीं पाई जातीं। प्रत्येक मुख्य पात्र अत्यंत साधारण किस्म का रंगीन पायजामा पहनता है। देवता पात्रों और राक्षस पात्रों के पायजामों के रंग अलग-अलग होते हैं । देवताओं के पायजामे गहरे हरे और गहरे पीले रंग के और राक्षसों के गहरे लाल और गहरे काले रंग के होते हैं । इन अलग-अलग रंगों के अलावा कपड़े पर लगभग छह-छह इंच की दूरी पर धारियां भी लगी होती हैं। शिव जैसे कुछ पात्र पायजामे के बदले बाघचर्म के प्रतीक-स्वरूप धोती या लुंगी पहनते हैं। गणेश पायजामे के साथ-साथ बंगाली शौली में एक वस्त्र खंड भी धारण करते हैं। स्त्री पात्र बंगाली शैली में साड़ी या स्त्रियों के वस्त्र पहनते हैं, लेकिन स्त्रियां बहुत कम ही होती हैं। काली का अभिनय अकसर किया जाता है, जो भयंकर दिखने के लिए विशेष प्रकार के वस्त्र धारण करती है।
देवता और राक्षस नाटकों का अभिनय करने वाले नर्तक अपने ऊपरी अंगों में अलंकृत वस्त्र पहनते हैं। सभी पात्र महीन या साधारण मखमल से बनी एक कशीदाकारी की हुई मिरजई पहनते हैं। सभी पात्रों के लिए या चाहे वे देवता हों या मानव हों या पशु, अपने चेहरे पर उपयुक्त मुखौटा लगाना जरूरी होता है। बंगाल में मुखौटे, पुरुलिया जिले के सिर्फ एक गांव में बनाए जाते हैं जो बागभुंडी क्षेत्र में स्थित है। मुखौटे का निर्माण झरने के तल से प्राप्त मिट्टी, रद्दी कागज के टुकड़े, कपड़े के टुकड़े या चिथड़े आटे से बने गोंद, छोटी छेनी, स्थानीय बाजार से खरीदा गया सजावट के सामानों से किया जाता है।
छऊ नृत्य के संगीत में कंठ-संगीत गौण होता है और वाद्य-संगीत की प्रधानता होती है। लेकिन, नृत्य के प्रत्येक विषय की शुरुआत एक छोटे गीत से की जाती है, जिसे उस विषय का प्रदर्शन करने के क्रम में कभी-कभी दुहराया जाता है, खास-तौर पर तब जब शहनाई या वंशी न बज रही हो। प्रत्येक पात्र का परिचय एक छोटे गीत से दिया जाता है जो अगले विषय के प्रारंभ होने तक चलता रहता है। इसके बाद कोई दूसरा पात्र घेरे में आता है और उसका परिचय देने वाला गीत शुरु हो जाता है।
-प्रीतिमा वत्स