Wednesday, November 26, 2008

गमछा नहीं, तो नाच नहीं


फरुआही नृत्य कारी वह लोक विधा है जिसमें नर्तक का अंग प्रत्यंग नाचता है और काफी श्रम साध्य होता है। इसके दर्शक भी कम नहीं हैं पर टीवी व सीडी के बढ़ते चलन ने इसका मान कम कर दिया है।

न मेकअप का खर्चा न सजने-संवरने का झंझट। सिर्फ धोती और गंजी पहन कमर में एक गमछा कसा और शुरु हो जाते हैं फरुआह कलाकार। कमीज पहनी है तो बड़ी अच्छी बात है नहीं पहनी है तो कोई बात नहीं। अपने गमछे से नर्तक कभी महिला का स्वांग करते हैं तो कभी कमर में बांधकर अपने नृत्य को गति देते हैं। बहरहाल गमछा इस नृत्य का प्रमुख हिस्सा है। इसको अलग कर कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन नहीं कर सकता शायद। या यूं कहें कि गमछा नहीं तो नृत्य नहीं, शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी। इस नृत्य के लिए ज्यादा वाद्य यंत्रों का भी प्रयोग नहीं किया जाता है। नृत्य के लिये टिमकी (तासा), नगाड़ा व झाल का ही प्रयोग किया जाता है। स्वयं प्रशिक्षित कलाकार होने के बावजूद फरुआही कलाकारों के नृत्य में कला में शास्त्रीय व लोक नृत्य का अद्भुत संयोग मिलता है।
इस विधा को देखने से लगता है कि इसका चलन वीरगाथा काल में सैनिकों के मनोरंजन को ध्यान में रखकर शुरू किया गया और आज भी वह जीवंत है। शायद इसलिए यह नृत्य महिलाएं नहीं बल्कि केवल पुरुष हीं करते हैं। पिछले दिनों राप्तीनगर के हरिसेवकपुर दुर्गामंदिर पर आयोजित श्रीमद् भागवत कथा ज्ञान महायज्ञ एवं रघुनन्दन मारुतिनन्दन महायज्ञ के प्रथम दिन आहूत फरुआह चन्द्रिका प्रसाद की टीम ने लोगों को बरबस अपनी ओर खींचा। टीम के आधा दर्जन नर्तकों ने लगभग 4 घण्टे तक लोगों को बांधे रखा। टीम के नर्तक धर्मेन्द्र, रूदल, जीतेन्द्र, अंजनी, छेदी व चिनिगी ने फरुआही नृत्य की बेहतर प्रस्तुति कर आज के दौर में अपनी सार्थकता साबित की। उनके साथ झाल व टिमकी-नगाड़ा के अलावा कोई वाद्य यंत्र प्रयुक्त नहीं किया गया। नृत्य के साथ भोजपुरी गीत प्रस्तुत कर रहे टीम के मुखिया चद्रिका ने कहा कि फरुआही की बची-खुची टीमें भोजपुरी संस्कृति में ही मर खप रही हैं पर इन्हें पूछनेवाला कोई नहीं रहा। चन्दि्रका प्रसाद ने कहा कि फरुआही नृत्य कारी वह लोक विधा है जिसमें नर्तक का अंग प्रत्यंग नाचता है और काफी श्रम साध्य होता है। इसके दर्शक भी कम नहीं हैं पर टीवी व सीडी के बढ़ते चलन ने इसका मान कम कर दिया है। उन्होंने कहा कि पहले गांव में शादी ब्याह के समय लोग इसे ले जाते थे पर अब ऐसा नहीं। बदलते परिवेश व मनोरंजन के आधुनिक संसाधनों ने काफी हद तक लोक विधाओं को मारा है। कला की इज्जत करने वाले व कलाकारों की टीम में शामिल लोगों ने भी अपना कैरियर फिल्म व कैसेट में बनाना शुरू कर दिया है। शहर से लेकर कस्बों तक नयी नाट्य संस्थाएं बन रही हैं और लोक कलाकार छंटते चले जा रहे हैं।
लेकिन कुछ भी हो जाए,आधुनिकता की कैसी भी बयार क्यों न बहे लोक की उष्मा तो बनी ही रहेगी।

-प्रीतिमा वत्स

5 comments:

  1. Faruha lok dance ke bare me jankar acha laga...aap jaise log yadi vidha per likh rahi hai to nisandeh ise pahchan milegi hi...ummid hai aap aur bhi bahut sari lok dance per likhengi.

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  2. आपने फरुआही लोकनृत्य के बारे में बहुत अच्छी जानकारी दी है!बहुत सही कहा है आपने की-आधुनिकता की कैसी भी बयार क्यों न बहे लोक की उष्मा तो बनी ही रहेगी।

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  3. फरुआही पर अच्छी जानकारी दी आपने. लोक जीवन की ऊष्मा तो कभी कम नहीं होगी मगर उसे सांस्कृतिक प्रदुषण से भी बचाने की जरुरत है.

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  4. aapane bahut achchha kam kiya hai.blog bhi bahut sundar hai. badhai.

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  5. तुम जैसी क्या और कहीं कोई नहीं बनारस जौनपुर गाजीपुर गोरखपुर देवरिया सिधार्थनगर (सभी उ. प्र. में)कोई और नहीं जो लोरिक-चन्दा की चनैनी, रंग पाल का फगुआ लोकगीत, कोहबर जैसी चित्रभिव्यति , हिन्दी ब्लॉग लेखन कर सके ? या शायद आप ही कर डालें.....
    रंग और उन्हें अभिव्यक्ति देने की अनुपम खमता (जो अर्थ से भी जुडी जुडी सी हो) की धनि "प्रतिभा" या प्रतिमा वत्स !
    बधाई...और फसबुक के ज़रिये मित्र मोटर होने पर गर्व है.

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