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इतिहास यहां कविता बनकर गूंजता है। कहते हैं, समुद्र मंथन में देवताओं ने मंदार पर्वत को मथानी बनाया था। सदियों से खड़ा मंदार आज भी लोक की आस्था का पर्वत बना हुआ है।
लोक मान्यता है कि भगवान विष्णु सदैव मंदार पर्वत पर निवास करते हैं। ऐसा माना जाता है कि यह वही पर्वत है, जिसकी मथानी बनाकर कभी देव और दानवों ने समुद्र मंथन किया था। मकर-संक्रांति के अवसर पर यहां एक मेला भी लगता है जो करीब पंद्रह दिन तक चलता है। मंदार पर्वत से लोगों की आस्थाएं कई रूप से जुड़ी हैं। हिंदुओं के लिए यह पर्वत भगवान विष्णु का पवित्र आश्रय स्थल है तो जैन धर्म को मानने वाले लोग प्रसिद्ध तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य से इसे जुड़ा मानते हैं। वहीं आदिवासियों के लिए भी मंदार पर्वत पर लगनेवाला मेला कई उम्मीद लेकर आता है। सोनपुर मेले की समाप्ति के बाद से ही लोग इंतजार करते हैं मंदार पर्वत के पास लगने वाले मेले का। सोनपुर मेले के बाद मकर संक्रांति के अवसर पर लगने वाला बौंसी का दूसरा बड़ा मेला माना जाता है।
बौंसी भागलपुर से दक्षिण में रेल और सड़क मार्ग पर स्थित बिहार राज्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस मेले का इतिहास काफी पुराना है इसमें आदिवासी और गैर-आदिवासी बड़े पैमाने पर मिलजुल कर मेले का आनंद लेते हैं।
मेले का मुख्य आकर्षण काले ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित सात सौ फीट ऊंचा मंदार पर्वत है। यह अनेक दंत कथाओं को समेटे बौंसी से करीब दो किलोमीटर उत्तर में स्थित है। समुद्र मंथन की पौराणिक गाथा से जुड़ा होने के कारण इसका विशेष महत्व है। मंदार की चट्टानों पर उत्कीर्ण सैकड़ों प्राचीन मूर्तियां, गुफाएं, ध्वस्त चैत्य और मंदिर धार्मिक और सांस्कृतिक गौरव के मूक साक्षी हैं। विभिन्न पुराणों, ऐतिहासिक और धार्मिक ग्रंथों में अनेक बार मंदार का नाम आया है स्कंद पुराण में तो मंदार महातम्य नामक एक अलग अध्याय ही है। मंदार वैष्णव संप्रदाय का प्रमुख केंद्र माना जाता है। प्रसिद्ध वैष्णव संत चैतन्य महाप्रभु ने भी अनेक जगह मंदार पर्वत की चर्चा की है। समुद्र मंथन का आख्यान महाभारत के आदि पर्व के 18वें अध्याय में भी है। महाभारत के मुताबिक भगवान विष्णु की प्रेरणा से मेरू पर्वत पर काफी विचार विमर्श के बाद देवताओं और दानवों ने समुद्र को मथा।
मकर संक्रांति के दिन मंदार पर्वत की तलहट्टी में उपस्थित पापहरणि तालाब का महत्व तो कुछ और है। लोकमान्यता है कि इस तालाब में स्नान करने से कुष्ठ रोग से मुक्ति मिलती है। लोग मकर संक्रांति के दिन अवश्य यहां स्नान करते हैं। जगह-जगह जल रही आग का लुत्फ उठाते हैं। उसके बाद भगवान मधुसूदन की पूजा अर्चना करते हैं। दही-चूड़ा और तिल के लड्डू विशेष रूप से खाए जाते हैं।
पुरातत्ववेत्ताओं के मुताबिक मंदार पर्वत की अधिकांश मूर्तियां उत्तर गुप्त काल की हैं। उत्तर गुप्त काल में मूर्तिकला की काफी सन्नति हुई थी। मंदार के सर्वोच्च शिखर पर एक मंदिर है, जिसमें एक प्रस्तर पर पद चिह्न अंकित है। बताया जाता है कि ये पद चिह्न भगवान विष्णु के हैं। पर जैन धर्मावलंबी इसे प्रसिद्ध तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य के चरण चिह्न बतलाते हैं और पूरे विश्वास और आस्था के साथ दूर-दूर से इनके दर्शन करने आते हैं। एक ही पदचिह्न को दो संप्रदाय के लोग अलग-अलग रूप में मानते हैं लेकिन विवाद कभी नहीं होता है। इस प्रकार यह दो संप्रदाय का संगम भी कहा जा सकता है। इसके अलावा पूरे पर्वत पर यत्र-तत्र अनेक सुंदर मूर्तियां हैं, जिनमें शिव, सिंह वाहिनी दुर्गा, महाकाली, नरसिंह आदि की प्रतिमाएं प्रमुख हैं। चतुर्भुज विष्णु और भैरव की प्रतिमा अभी भागलपुर संग्रहालय में रखी हुई हैं। फ्रांसिस बुकानन, मार्टिन हंटर और ग्लोब जैसे पाश्चात्य विद्वानों की आत्मा जिन्हें मंदार के सौंदर्य ने कभी प्रभावित किया था, सदियों से प्राकृतिक आपदाएं सहन करती हुई ये मूर्तियां उद्धार के लिए तरसती होंगी । स्थानीय लोगों ने इन प्राचीन मूर्तियों का आकार परिवर्तित कर इच्छा के मुताबिक देवी-देवता के रूप में स्थापित कर लिया है और भक्तों को आकर्षित कर पैसा कमाया जा रहा है। इससे प्राचीन मूर्तियों का अस्तित्व खतरे में है। पर्वत परिभ्रमण के बाद लोग बौंसी मेला की ओर प्रस्थान कर जाते हैं। बौंसी स्थित भगवान मधुसूदन के मंदिर में साल भर श्रद्धालु भक्तों का तांता लगा रहता है। मकर संक्रांति के दिन यहां से आकर्षक शोभायात्रा निकलती है।
-प्रीतिमा वत्स