शाम का वक्त था। रोज की तरह मिहिर अपने बाबा के साथ घूमने निकला था। मिहिर को अपने बाबा के साथ घूमना बहुत अच्छा लगता था। क्योंकि उसे सवाल पूछने की आदत थी और घर भर में बाबा ही ऐसे थे जो उसके हर सवाल का जवाब देते थे। आज अचानक चलते-चलते मिहिर ने पूछ लिया-बाबा कोई आदमी पहाड़ से भी ऊंचा हो सकता है क्या? उसके गाव से बहुत दूर खड़े एक विशाल पहाड़ को ही देखकर मिहिर के मन में यह सवाल उठा था। मिहिर की बातों को सुनकर उसके बाबा पहले तो मुस्कुराए, फिर सुस्ताने के लिहाज से पास की एक पुलिया पर बैठ गए। मिहिर भी उनके साथ जाकर बैठ गया-बताओ न बाबा कोई आदमी पहाड़ से भी ऊंचा हो सकता है क्या?
बाबा ने मिहिर के बालों को सहलाते हुए कहा-लंबाई में तो कोई आदमी पहाड़ से ऊंचा नहीं हो सकता, लेकिन
कई लोग ऐसे हुए हैं, जिनका कद पहाड़ से भी ऊंचा है।
मिहिर को बात समझ में नहीं आई-ऐसा कैसे हो सकता है?
बाबा ने बताना शुरु किया-अपने काम से कई लोग पहाड़ से भी बड़े साबित हुए हैं जैसे कि गया के दशरथ मांझी।
मिहिर को अभी भी कुछ समझ में नहीं आ रहा था
तो वह फिर पूछ बैठा -दशरथ मांझी कौन थे और उनका कद पहाड़ से ऊंचा
कैसे हो गया?
अब बाबा ने बिस्तार से बताना शुरु किया-बिहार के गया जिले के एक छोटे से गांव गहलौर में दशरथ मांझी पैदा हुए थे। लोगों
के पास जीने का एकमात्र जरिया खेती-बारी। गहलौर गांव एक पहाड़ी
से घिरा हुआ है। गांव से बाहर निकलने या उस गांव में जाने के लिए उस पहाड़ी को पार
करना जरूरी था। उसी गांव में अपनी जिंदगी जीते, खेती-बारी करते दशरथ मस्त थे। वह अक्खड़ भी थे और फक्कड़ भी। कभी स्कूल नहीं गए, लेकिन कबीर को खूब सुना कबीर को खूब गाया। अपने गांव के अपने
कबीर थे दशरथ मांझी
आठवीं क्लास में महान कवि कबीर को पढ़ चुके
मिहिर को अब इस कहानी में मजा आने लगा। वह चहक उठा और गौर से बाबा को सुनने लगा-दशरथ हमेशा दूसरों की भलाई की बातें किया करते थे। लेकिन गांव के लोगों को
कम ही फुरसत थी कि वे दशरथ को सुनें। लेकिन अचानक एक छोटी सी घटना ने दशरथ की पूरी
जिंदगी ही बदल दी। जीने का मकसद बदल दिया।
फिर क्या हुआ बाबा, मिहिर पहाड़ से भी ऊंचे आदमी के बारे में जानने को बेताब था।
बाबा ने कहानी आगे बढ़ाई-दोपहर का वक्त था। दशरथ मांझी पहाड़ी के उस पार खेतों में काम कर रहे थे। हर
रोज की तरह उनकी पत्नी फागुनी देवी उनके लिए भोजन और पानी ले के आ रही थीं। वह अभी
पहाड़ी पर चढ़ ही रही थी कि अचानक उनका पांव फिसल गया। वह गिर गईं। उनके पांवों में
चोट भी लगी और वह बुरी तरह घायल हो गई। जब तक दशरथ मांझी को बात पता चली और वह भागते-भागते वहां तक पहुंचते तो काफी देर हो चुकी थी। इसके बाद भी सबके सामने समस्या
ये थी कि जख्मी हालत में फागुनी देवी को किसी डॉक्टर के पास कैसे पहुंचाया जाए। गांव
से सबसे नजदीक का कस्बा लगभग साठ किलोमीटर दूर था और उसपर भी कई किलोमीटर तक पहाड़
की चढ़ाई। घर में जो भी उपचार संभव था,उससे किसी तरह फागुनी देवी
की जान तो बच गई, लेकिन दशरथ मांझी बैचेन हो गए।
ऐसा क्यों बाबा, उनकी पत्नी की जान तो बच गई,मिहिर को बाबा की इस कहानी
में रस आने लगा था।
बाबा ने एक लंबी सांस ली और बताना शुरु किया-दशरथ मांझी इसलिए बैचेन हो उठे क्योंकि उन्हें सिर्फ अपनी पत्नी की चिंता नहीं
थी, उन्हें पूरे गांव की फिक्र थी। इस एक छोटी सी घटना ने दशरथ
मांझी के पूरे जीवन को ही बदल दिया। उन्होंने ठान लिया की इस पहाड़ी को काट कर के आने-जाने लायक रास्ता बनाना है। एक ऐसा रास्ता जो न सिर्फ शहर की दूरी को ही कम
कर दे, बल्कि लोगों की यात्रा को आसान
भी बना दे।
फिर दशरथ मांझी ने क्या किया बाबा, मिहिर सब कुछ जान लेना चाहता था।
बाबा थोड़ी देर रूके, मानो पुरानी कहानी को याद कर रहे हों फिर कहना शुरु किया-दशरथ मांझी ने तय कर लिया कि वह पहाड़ को काटकर गांव वालों के लिए रास्ता बनाएंगे।
एक हथौड़ी ....एक छेनी ...और एक तसला ले कर जुट गया वह आदमी अपने काम में। शुरू में तो
किसी ने ध्यान नहीं दिया। गाव के लड़के बोले, सनकी हो गए हैं
दशरथ मांझी। किसी ने कहा कि यह पर्वत तो सतयुग,द्वापर और त्रेता युग में भी था। उस समय तो देवता भी यहां रहते
थे। उन्हें भी इस रास्ते से आने-जाने
में कष्ट होता होगा,लेकिन किसी ने तब ध्यान नहीं दिया, अब कलयुग में आप क्यों यह पागलपन कर रहे हैं। पत्नी ने उन्हें झिड़का था- तुम पागल हुए हो क्या? तुम्हीं
को चिंता है रास्ता बनाने की? और फिर
यह दरार तो तबसे है, जबसे यह धरती बनी. पागल मत बनो, चुपचाप
जाकर खेतों में काम करो. तब वह हंस कर रह जाते. पिता ने समझाना चाहा, तब उन्होंने
कहा था- आज तक हमारा खानदान मजदूरी करता
रहा है. मजदूरी करते-करते लोग मर गये. खाना, कमाना और मर जाना. इतना
ही तो काम रह गया है. सिर्फ यह एक काम है जो मैं अपने
मन से करना चाहता हूं. आप लोग मुझे रोकिए मत, करने दीजिए. उनका
काम जारी रहा। वह लगे रहे...बस लगे रहे। और दो चार दिन या महीना दो महीना
नहीं, पूरे 22 साल अकेले लगे रहे।
इस बीच गांव वालों को कौतूहल तो होता था। कुछ
लोग आते थे कभी-कभी देखने। बाद में कुछ लोगों ने दशरथ मांझी
को छेनी-हथौड़ी वगैरह देना शुरू कर दिया।
अपनी तरफ से पूरे 22 साल वह अकेले लगे रहे।
22 साल, मिहिर को एक झटके में तो विश्वास ही नहीं हो रहा था कि 22 साल तक एक आदमी पहाड़ों को काटता रहा। बाबा
थोड़ी देर के लिए रूके और फिर बताना शुरु किया-22 सालों में न जाने कितनी तरह की बातें दशरथ को सुननी पड़ीं, लेकिन
एक अच्छी पत्नी की तरह फागुनी दिन में दो बार उनका खाना पानी ले कर जरूर आती थी।
और अंत में 22 साल बाद उस आदमी का सपना पूरा हुआ जब उसने उस पहाड़ी की छाती
चीर के 360 फुट ( 110 मीटर ) लम्बा
, 25 फुट (7 .6 मीटर ) गहरा
और 30 फुट ( 9 .1 ) मीटर चौड़ा रास्ता बना डाला । एकदम निपट अकेले । बिना किसी सहायता
के । बिना किसी प्रोत्साहन के और बिना किसी प्रलोभन के। वह आदमी पूरे 22 साल लगा रहा। न दिन देखा न रात। न धूप देखी, न छाँव। न सर्दी न बरसात। वहां न कोई पीठ ठोकने वाला था। न शाबाशी
देने वाला। उलटे गांव वाले मजाक उड़ाते थे। कभी-कभी तो घऱवाले
भी हतोत्साहित करते थे। 22 साल तक
वह आदमी अपना काम-धाम छोड़ के लगा रहा। अरे! कहीं किसी के खेत में काम करता तो पेट भरने लायक
अनाज या मजदूरी तो पाता? फिर भी
वह लगे रहे। उस सुनसान बियाबान में।
.......और एक बात बता दूं मिहिर! बाबा खुद इस कहानी में डूबे हुए थे-गर्मियों में उस जगह का तापमान 50 डिग्री तक पहुँच जाता है। और 22 साल बाद, जब वह सड़क या यूं कहें कि रास्ता
बन कर तैयार हो गया तो उस इलाके के और गांव के लोगों को अहसास हुआ कि क्या गजब हो गया।
गहलौर से वजीरगंज की दूरी जो पहले 60 किलोमीटर होती थी अब सिर्फ 10 किलोमीटर
रह गयी है। बच्चों का स्कूल, जो 10 किलोमीटर दूर था, अब सिर्फ 3 किलोमीटर रह गया है। पहले अस्पताल पहुँचने में सारा दिन लग जाता
था। उस अस्पताल में अब लोग सिर्फ आधे घंटे में पहुँच जाते हैं । आज उस रास्ते को उस
इलाके के 60 गांव के लोग इस्तेमाल करते हैं।
मिहिर को यकीन नहीं हो रहा था कि यह गप्प है
या हकीकत, लेकिन बाबा कह रहे हैं तो सच ही
होगा, यह सोचकर मिहिर को भरोसा हुआ।
अब उसे यह जानना था कि रास्ता बन जाने के बाद दशरथ मांझी को कैसा लगा?
बाबा बोले-यह बात
१९६० की है। 19 82 में जाकर वह रास्ता तैयार हुआ। इस अजूबे का
बाद दुनिया उन्हें ‘माउन्टेन
कटर’ के नाम
से पुकारने लगी। रास्ता तो बन गया, लेकिन इस काम
को पूरा होने के पहले उनकी पत्नी का देहांत हो गया। मांझी ने अपना पसीना बहाकर असंभव
सा लगने वाला काम संभव कर दिखाया। उन्हें सम्मान मिला। उनके नाम से पुरस्कार बंट रहे
हैं। 17 अगस्त 2007 को कैंसर से उनकी मृत्यु हो गई लेकिन लोगों के दिलों में आज
भी दशरथ मांझी जिंदा हैं, जिन्होंने सामान्य जीवन जीते हुए
अपने कर्मों से इतिहास में खुद को स्वर्ण अक्षरों में दर्ज करा लिया। हम सभी
को उस कर्मयोगी से प्रेरणा लेनी चाहिए! यह कहकर बाबा ने एक गहरी सांस ली।
अब बाबा की बातों से मिहिर को समझ में आ गया
था कि पहाड़ से ऊंचे आदमी कैसे होते हैं।
- Pritima Vats.
- Photographs- Internet.