पवित्र
द्वारिका नदी के किनारे स्थित
मलूटी के मंदिर मध्यकालीन
स्थापताय-कला
के अनूठे नमूने हैं जिनकी
दीवारों पर टेराकोटा की
कलाकृतियाँ मानो सजीव हो उठी
हैं।
झारखंड
और बंगाल के बार्डर पर,
दुमका
जिले से 55
किलोमीटर
दूर एक गांव है,
मलूटी।
इस गांव में एक सिरे से दूसरे
सिरे तक सिर्फ मंदिर हीं मंदिर
नजर आते हैं। शायद एक छोटी सी
जगह में इतने सारे मंदिर एक
साथ होने की वजह से हीं इस
क्षेत्र का नाम गुप्त काशी
रखा गया होगा। इस गांव में कभी
108
मंदिर
स्थित थे जिनमें से अधिकांश
भगवान् शंकर को समर्पित थे
और इनमें भव्य शिवलिंग स्थापित
थे। संरक्षण के अभाव के चलते
अब इन मंदिरों में सिर्फ 69
मंदिर
ही बच पाये हैं।
हरे-भरे
वृक्षों के बीच पवित्र द्वारिका
नदी के किनारे स्थित मलूटी
के ये मंदिर मध्यकालीन
स्थापताय-कला
के अनूठे नमूने हैं जिनकी
दीवारों पर टेराकोटा की
कलाकृतियाँ मानो सजीव हो उठी
हैं। यही कारण है कि ये मंदिर
न सिर्फ शिव भक्तों को,
वरन्
पर्यटकों,
पुरा
विशेषज्ञों और इतिहास प्रेमियों
को भी अपनी ओर आकर्षित करता
है।
मलूटी
के मंदिरों की यह खासियत है
कि ये अलग-अलग
समूहों में निर्मित हैं।
भगवान् भोले शंकर के मंदिरों
के अतिरिक्त यहाँ दुर्गा,
काली,
धर्मराज,
मनसा,
विष्णु
आदी देवी-देवताओं
के भी मंदिर हैं। इसके अतिरिक्त
यहाँ मौलिक्षा माता का भी
मंदिर है जिनकी मान्यता जाग्रत
शाक्त देवी के रूप में है।
एक
गांव में इतने सारे मंदिरों
का होना किसी के लिए भी एक
आश्चर्य से कम नहीं है लेकिन
यह सत्य है कि मलूटी के राजाओं
ने समय समय पर अपनी रानियों
के लिए राजप्रासादों की वजाय
इन मंदिरों का निर्माण करवाया
था। मलूटी राज के प्रथम राजा
बसंत राय तथा उनके वंशजों
द्वारा सन् 1720
से
1840
के
बीच इन मंदिरों को बनवाया गया
है। मलूटी के राजाओं का अंत
हो जाने के बाद ये मंदिर उपेक्षित
होते चले गये। एक छोटे से गाँव
में इतने सारे मंदिरों की
देखभाल करनेवाला कोई नहीं
रहा। सेना के रिटायर्ड अफसर
गोपालदास मुखर्जी एक ऐसे आदमी
हैं जो काफी चिंतित और सजग
दिखाई देते हैं इन मंदिरों
के प्रति। सेना से रिटायर्ड
होने के बाद से वे समर्पित भाव
से लगे हैं इन मंदिरों की सेवा
में। उन्हे उम्मीद है आज न कल
सरकार जरूर जागेगी इनकी हिफाजत
करने।जिर्ण-शीर्ण
हालत में होते हुए भी आज भी
गजब की सुंदरता झांकती है इन
मंदिरों से। इन मंदिरों का
निर्माण बंगाल की सुप्रसिद्ध
'चाला'
रीति
से की गयी है। ये छोटे-छोटे
लाल सुर्ख ईंटों से निर्मित
हैं और इनकी ऊंचाई 15
फीट
से लेकर 60
फीट
तक है। मंदिरों की दीवारों
पर ज्यादातर राम और कृष्ण लीला
के चित्र अंकित हैं। सावन के
महीने में यहाँ मेला भी लगता
है। कुछ भक्त गण बाहर ,से
भी आते हैं मंदिरो में पूजा
तथा मेले में शिरकत करने ।
लेकिन इस गांव के मंदिर में
वस्तुतः उजाड़ निहित है ।
मलूटी में रहनेवाली एक वृद्ध
महिला साधना चटर्जी कहती हैं
"
1986 में
,
बिजली
आया था। दस दिन बाद ,
यह
चला गया,फिर
कभी नहीं आया है।"
सूर्यास्त
पर ,
केवल
लैंप के प्रकाश में रहने को
विवश हैं यहाँ के निवासी। इस
कारण पर्यटक भी घबराते हैं
यहाँ रात रुकने से।
-प्रीतिमा वत्स