सभ्यता की पहली सीढ़ी के रूप में जंगल का महत्व सभ्य समाज में मनुष्य के लिए जहां अब सिर्फ सामान्य ज्ञान का एक प्रश्न बनकर रह गया है, वहीं झारखंड के आदिवासी समाज के लिए वन पर निर्भरता निम्न अनुपात में अब भी चली आ रही है। ये जंगल, ये परंपरागत भूमि उनके लिए पूर्वजों की समाधि, वंश-गोत्र का मूल स्थल तथा उनकी धार्मिक पद्धति के अंतर्गत आवश्यक अन्य पवित्र कृत्यों के रूप में महत्वपूर्ण सांकेतिक तथा भावनात्मक अर्थ रखती है। यही कारण है कि भूमि और रक्त उनके लिए समानार्थी हैं। जैसा कि झारखंड के डमरू क्षेत्र में एक शिक्षक का काम कर रहे सांतल मुर्मू का कहना है- “मेरी जमीन मेरी रीढ़ है, मेरा असली पहचान है। मेरे आस-पास फैला हुआ ये जंगल मेरी सांसे हैं, यहां हमारे पशु आराम से चारा खा सकते हैं। हमारे देवी-देवता शान्ति से निवास करते हैं। लेकिन पता नहीं आज कल ये आधुनिकता की कैसी हवा चली है कि हमारे जमीन ही हमसे छूटते जा रहे हैं, हमारे जंगल बिना कारण उजाड़े जा रहे हैं, हमारे भाई-बंधू महानगरों में बंधुआ मजदूरी करने के लिए भाग रहे हैं”। आदिवासी का वन के साथ ही सुदीर्घकालीन साहचर्य ने उसे मानसिक स्तर पर बड़ी गहराई से प्रभावित किया है। जीवन के अंतिम लक्ष्य, शान्ति की तलाश में वह जंगल की ही ओर जाता है। आदिवासी समाज के दुश्मन इस बात को अच्छी तरह समझ गए हैं। उन्हें यदि कहीं से भगाना हो, तो उनसे जंगल छीन लीजिए।
आदिवासियों के लिए अगर वन उसकी शांति है, तो कृषि उसकी सांस है। तभी तो जीवन हर लय और संगीत में उनके गीत और स्तुति भी प्रकृति से ही जुड़े होते हैं।
हे स्वर्ग के परमेश्वर
पृथ्वी की धरती माता
दूध से उगनेवाले
दही से डूबने वाले
चारों कोने, दसों दिशाएं
उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम
झिलमिल धरती
झुका हुआ आसमान
चटाई सी बिछी हुई
कटोरे से ढंका हुआ।
गाछ-वृक्ष, पशु-पक्षी
वन-पहाड़,नदी-मैदान
तुम्हारी ही सृष्टि
तुम्हारी ही उत्पत्ति
तुम्हीं से टिका, तुम्हीं से रक्षित है।
आदिवासियों के पूजा-अर्चना, धर्म-संस्कार आदि में भी जंगल और प्रकृति की ही प्रधानता रहती है। ज्यादातर इनके देवी देवता पेड़ों की झुरमुटों,गांव की सरहदों,मवेशियों के रहने की जगह आदि पर निवास करते हैं। इन देवी देवताओं के पूजा-अर्चना का भी अंदाज कम निराला नहीं है।
शिकार की देवी चणडी,
पहाड़ का पहाड़ी देवता
तुम्हारे साथ रहनेवाले,
तुम्हारे साथ विराजनेवाले,
एक पीढ़े में बैठनेवाले,
एक चटाई में विराजनेवाले,
सभी देवताओं की,
सभी देवियों को
हम आमंत्रित करते हैं।
हम न्योता देते हैं।
हमारी पूजा स्वीकार करो।
आदिवासी अपनी कर्मठता, श्रमशीलता, ईमानदारी आदि गुणों के लिए प्रसिद्ध रही है। जिस तरह संताल परगना की छाती पर फैले कठोर ग्रेनाइट पत्थरों वाली हिमालय से भी पुरानी प्रागैतिहासिक राजमहल पर्वतमाला की ऊंचाईयों से मोती झरना का प्रवाहित होना एक सत्य है, उसी तरह यहां के त्रासद-खुरदरे-संघर्षमय-श्रमशक्ति संताल आदिवासियों के जीवन की गहराइयों से लोक-गीतों और लोक संगीत की निर्झरिणी का बहना यहाँ का दूसरा सत्य है। अपूर्व प्राकृतिक सम्पदा के बीच निवास करनेवाले संतालों को गीत-संगीत विरासत में मिले हैं। तभी तो इनके बीच यह कहावत प्रचलित है कि “रोड़ाक गी राड़ाक, ताड़ामाक् गी हिलावाक्।” अर्थात् हमारी वाणी ही संगीत है और हमारी चाल ही नृत्य है।
ऊंचे पहाड़ की चोटी से
उड़ गया देखो-
सुन्दर पंखों वाले मोर का जोड़ा।
लगता है ऐसा कि
ये मोर पक्षी का जोड़ा नहीं
लहराती साड़ियां हैं
दो युवतियों की।
हमारे इतिहास में जो भी सुन्दर तेजस्वी तत्व हैं वे लोक में कहीं न कहीं सुरक्षित हैं। हमारी कृषि, अर्थशास्त्र, ज्ञान, साहित्य,कला के नाना स्वरूप, भाषाओं और शब्दों के भंडार, जीवन के आनन्दमय पर्वोत्सव, नृत्य-संगीत,कथा-वार्ता में सभी कुछ भारतीय लोक में ओतप्रोत है। लोक की गंगा युग-युग से बह रही हैं। उसमें भूत, भविष्य और वर्तमान सभी कुछ संचित रहते हैं। लोक की धात्री सर्वभूत माता पृथ्वी और लोक का व्यक्त रूप मानव में ही हमारे नवीन जीवन का अध्यात्म-शास्त्र है। इस दृष्टि से यदि इन आदिवासी लोकगीतों की मीमांसा की जाए तो वे बिल्कुल खरे उतरते हैं।
तुम्हारी ही सृष्टि
तुमाहारी ही उत्पत्ति,
वन-पहाड़, नदी-मैदान
पशु-पक्षी, जीन-जन्तु
तमु ही से रक्षित हैं
तुम ही से जीवित हैं।
-प्रीतिमा वत्स