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हर प्रथा के पीछे कुछ न कुछ सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व होता है। जल समस्त प्राणी जगत के लिए अत्यंत आवश्यक है इसके बिना जीबन की क्लपना भी नहीं की जा सकती है। शायद इसलिए कुंआ पूजन की प्रथा भी सदियों से चली आ रही है। शादी हो,मुंडन हो, उपनयन संस्कार हो या जन्म उत्सव । हर जगह पूजा जाता है कुंआ। आधुनिकता की दौड़ में भले ही पीछे छूटते जा रहे हैं हमारे पुराने जीवनोपयोगी साधन। परन्तु परम्पराएं यूं ही शून्य से नहीं उपजी थीं। उसके पीछे तमाम प्रमाण और अच्छाईयां भी छिपी होती थी।
जन्म उत्सव के समय कुंआ पूजन का महत्व कुछ ज्यादा हीं बताया जाता है। प्रसव के बाद प्रसूता को पवित्र करने के लिए कुंआ पूजन कराया जाता है। बिहार तथा झारखण्ड के कुछ इलाकों में यह प्रसव के 12वें दिन कराया जाता है। कहीं 21वें दिन तो कुछ समाज में यह 40वें दिन भी कराया जाता है। बुंदेलखण्ड में यह प्रथा बहुत ही धूमधाम से मनाई जाती है। यह रिवाज तीन चरणों में पूरा होता है। पहले नहान में नीम की पत्तियों के साथ उबले हुए पानी से मां तथा शिशु दोनों के नहलाया जाता है। तब वह अपने सौर घर से आंगन तथा अन्य कमरों में कदम रख सकती है। दूसरे चरण में वह सूर्य भगवान के दर्शन करती है तथा रसोई घर की पूजा कर रसोई का कार्य संभालती है। तीसरी और अंतिम पूजा कुंआ की होती है। इसमें जच्चा हल्दी, चावल रोली आदि से कुंए का पाट पूजती हैं, तथा अपने अन्दर भी कुंए जैसी तमाम विशेषताओं की कामना करती हैं। इसके बाद दो गागर पानी भरकर अपने सिर पर रखकर वापस घर तक आती हैं। जिसके बाद वह पूरी तरह से स्वस्थ और पवित्र मानी जाती हैं। तथा घर के हर कामों में हाथ बंटा सकती हैं।
इन रीति रिवाजों के पीछे भी बड़ा ही मनोवैज्ञानिक कारण होता है। यदि रीति रिवाजों के बन्धन में बांधकर जच्चा-बच्चा को किसी कमरे में न रख दिया जाए ते वह संयुक्त परिवार के भरे-पूरे माहौल में एक दिन भी आराम नहीं कर पाएगी।
शायद इसीलिए यह प्रथा सदियों से चली आ रही है और करीब-करीब पूरे भारत में आदर के साथ इसका पालन भी किया जाता है।
-प्रीतिमा वत्स
(फोटोग्राफ- नेट से साभार)