पश्चिम बंगाल के ज्यादातर गांवों में बांग्ला भाद्र महीने के आते हीं भांजो नामक फसल की देवी की पूजा की तैयारी शुरू हो जाती है। यह पर्व फसल के अच्छी पैदावार की कामना से की जाती है। संभवतः भांजो शब्द भाद्र महीने के नाम से निकला है जिस महीने में यह पूजा की जाती है। यह पूजा शुक्ल पक्ष में द्वादशी को की जाती है। इस दिन गांव की कुछ अविवाहित युवतियां गांव से बाहर किसी जगह मिट्टी के पिंड एकत्र करती हैं। इसी प्रकार पड़ोस के गांवों के कुछ युवक भी उसी जगह आते हैं और ये दोनों दल आमने-सामने खड़े हो जाते हैं। कुछ देर तक वे अपनी-अपनी जगह पर खड़े रहकर नाचते-गाते हैं, जिसके बाद कोई एक दल पीछे हट जाता है। इस पर दूसरा दल कुछ आगे बढ़कर मिट्टी के कुछ पिडों को उठा लेता है और विजय के गीत गाते हुए गांव लौट जाता है। इस दल के लौट जाने के बाद दूसरा दल अपने हिस्से के पिंड एकत्र करता है। यह दो प्रतिस्पर्धी गांवों के बीच लड़ाई का प्रतीक है, जिसमें कोई एक जीतता और दूसरा दल हारता है। किंवदन्ती है कि पुराने जमाने में गांवों के वयस्क पुरुष भी अपने-अपने दलों के साथ इस नकली लड़ाई में भाग लेते थे। कुछ गांवों में युवतियों के दल के साथ गांव के छोटे लड़के भी आते हैं।
युवतियां मिट्टी के पिंडों को गांव के सार्वजनिक पूजा-स्थल पर ले जाती है। वे इसमें से सभी प्रकार के कंकड़-पत्थर निकालकर साफ करती हैं। चूहों के बिलों और परित्यक्त घरों से कुछ और मिट्टी लेकर इसमें मिला दी जाती है। इसके बाद मिट्टी को पीतल या मिट्टी की थालियों में भरकर उसके ऊपर दो तरह की दालों और जौ के बीज, सनई(जूट) का पौधा और सरसों डाल दिया जाता है। इसे शस्य पाता कहा जाता है। कहीं-कहीं पर इसे आंकुर थापना भी कहा जाता है। इसके बाद इन थालियों को किसी पवित्र स्थान पर, अकसर तुलसी या पीपल के पौधे की छाया में रख दिया जाता है। इन युवतियों में से कोई एक प्रतिदिन प्रातः स्नान करके इन बीजों को सींचने का भार उठाती हैं। सिंचाई का यह क्रम पूरे एक सप्ताह तक चलता है, तब तक बीज फूटकर पौधे कुछ हो जाते हैं। आठवें दिन पूजा-स्थल पर बनाए गए मिट्टी के टीले को इस प्रकार ढंका जाता है जिससे वह किसी स्त्री के पुतले-सा दिखाई दे। इस पुतले को फूलों से सजा दिया जाता है। संध्यासमय इन पौधों को टीले के चारों ओर रख दिया जाता है और पुरोहित को बुलाकर उससे पूजा कराई जाती है और युवतियां घेरा बनाकर टीले और थालियों के चारों ओर नाचने लगती हैं। वे नाचते हुए नगाड़े और कांसे के बने अन्य बाजे बजाकर लोकगीत भी गाती हैं। कभी-कभी इन नृत्यांगनाएं संगीत रोककर भांजो के उपर रची अनगढ़ कविताओं का पाठ भी करती हैं। इसके बाद युवतियां अपने-अपने घर लौटती हैं। अगली सुबह वे फिर उसी जगह पर नाचने-गाने के लिए जुटती हैं। कुछ देर तक नाच-गा लेने के बाद वे स्त्री के पुतले और बीजों के फूटने से उगे पौधों को लेकर नाचते-गाते हुए किसी नदी या तालाब के तट पर ले जाती हैं। भांजो से प्रार्थना करते हुए कहती हैं कि-
इस रास्ते से जाओ, भांजो
इस रास्ते से जाओ,
बेना के वृक्ष में कौड़ी है
उसे देकर दूध खरीदोपानी के पास पहुंचने पर वे स्त्री के पुतले को पानी में बहा देती हैं। थालियों में रखी मिट्टी फेंक दी जाती हैं, लेकिन पौधों को पानी से साफ करके वे घर लाती हैं। इनमें से कुछ पौधे घरों के छाजन में खोंस दिए जाते हैं और कुछ मवेशियों को खिला दिये जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि घरों के छाजन में टंगी रहने के कारण पूरा घर अन्न और धन से भरा रहता है और मवेशियों को खिलाने से मवेशी खुशहाल रहते हैं, गाय-भैंस हों तो ज्यादा दूध देती हैं।
-प्रीतिमा वत्स
Friday, April 23, 2010
Tuesday, April 6, 2010
प्रकृति को समर्पित मेरी दो नयी पेंटिंग
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