दामाद तो हर जगह हर समाज में प्यारा होता है, परंतु मिथिला के दामाद की तो बात ही कुछ और होती है। मिथिला में दामाद की खादिरदारी ऐसे की जाती है मानों वह कोई आदमी नहीं भगवान उतर आए हैं धरती पर। दामाद गाँव में प्रवेश किये नहीं कि हर का हर जरुरी से जरुरी काम करीब-करीब बंद हो जाता है, फिर उनका एक हीं मकसद रह जाता है। उनका एक हीं मकसद रह जाता है अपने पाहुन की खातिरदारी करना। पूरे घर में हँसी-खुशी का माहौल छाया रहता है। सभी दामाद के इर्द-गिर्द हीं चक्कर काटते रहते हैं। किसी भी हाल में दामाद जी को कोई तकलीफ नहीं पहुँचना चाहिए। चाहे इसके पीछे कर्ज की भारी रकम हीं क्यों न लेनी पड़े। मिथिला के गाँवों में आज भी कमोबेश यह परंपरा जारी हैः-
पहुना अब मिथिले में रहुंना,
पहुना अब मिथिले में रहुंना।
जतने सुखवा ससुरारी में
ततने और कहूं ना,
पहुना अब मिथिले में रहुंना।
नित नवीन मनभावन व्यंजन,
सखी शलहज के गारी,
नित नवीन मनभावन व्यंजन,
सखी शलहज के गारी,
बार-बार धनि तोहरे निहारे,
आरो किछुओ,लहुना,
पहुना अब मिथिले में रहुंना।.............
शब्दार्थ- इस लोकगीत में दामाद से अनुरोध किया जा रहा है कि आप अब मिथिला में ही रह जाइए। जितना सुख ससुराल में मिलता है उतना और कहीं भी नहीं मिल सकता है। हर रोज तरह-तरह के मनभावन व्यंजन बनते रहते हैं। साली शलहज का मीठी-मीठी झिड़कियाँ सुनने को मिलती है। उसपर पत्नी बार-बार इस आसरे में खड़ी देखती रहती है कि कहीं किसी चीज की जरुरत तो नहीं, कुछ चाहिए तो नहीं।
-प्रीतिमा वत्स
Sunday, August 2, 2009
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