उल्लास की ऊंचाई को दर्शन की गहराई से जोड़कर देखने वाले लोग पूरे जीवन को पानी का बुलबुला मानते हैं और उनके लिए यह संसार एक विशाल सागर हो जाता है। इसी सागर में खिलते हैं जीवन, सजते हैं सुर और यहीं भीगता है मन। मन को भीगोने वाले संगीत के कुछ राग और उन पर आधारित चित्रों की कलात्मक अभिव्यक्ति सचमुच सब कुछ बहा लेना चाहते हैं।
गांवों में बादल की हल्की रेखा दिखी नहीं कि बच्चों की टोली जमा हो जाती है-काले मेघा पानी दे, पानी दे गुड़-धानी दे। बच्चों की खुशी और पुकार से पानी सचमुच बरसता है या नहीं, यह तो नहीं मालूम, पर यह लोक विशवास ही है, जहां से शुरू होता है संगीत का सफर, रागों की रचना और सुनने वालों की महफिल।
इन्हीं महफिलों से रचे जाते हैं रागमाला चित्र। रागमाला चित्रों का सृजन भारत की अन्य कला शैलियों में भी हुआ है तथापि राजस्थानी कला शैली की बात ही निराली है। राजस्थान में बने रागमाला चित्रों के आधार वे संगीत ग्रंथ रहे हैं, जिनमें विभिन्न ऋतुओँ पर आधारित छह प्रमुख रागों तथा उनसे निकला रागिनियों का विवेचन किया गया है। इन संगीत ग्रंथों में हेमंत, शिशिर, बसंत, ग्रीष्म, वर्षा तथा शरद ऋतु की प्रकृति को आधार बनाकर छह प्रमुख रागों जैसे श्री, मालकोस, हिण्डोल, दीपक, मेघ तथा भैरव रागों की रचना की गई है। उक्त प्रमुख रागों के साथ-साथ रागिनियां भी प्रचलन में आईं। जैसे रागश्री के साथ मालश्री, मारुधनाश्री, बसंत तथा आसावरी रागिनियों को प्रस्तुत किया गया। इसी प्रकार राग मालकॉस के साथ गौरी, टोडी, मुणकनी, खम्मायाजी तथा कुमकुम रागिनी, राग हिण्डोल के साथ रामकली, ललित, देसाखा , बिलावल और षटमंजरी प्रचलन में आई। राग दीपक के साथ मल्हार, गूजरी भूपाली, टक तथा देसकार और राग भैरव के साथ भैरवी, मधुमाधवी,भैरागी, सैंधवी एवं बंगाली रागिनियों को भी गायकों ने अपनी मधुर वाणी से प्रचारित किया।
समयांतर से राग-रागिनियों के रूप-स्वरूप और नामकरण में और भी परिवर्तन हुए। रागिनियों के साथ कुछ गायकों और घरानों के नाम जोड़कर भी उन्हें प्रस्तुत किया जाने लगा। जैसे मियां की मल्हार, गुमारू टोडी, गौड़ मल्हार, मियां की टोडी, बिलावल, मालबी, मल्लारिका, त्रिवेणी, सारंग और विभास आदि। उक्त प्राय़ः सभी राग- रागिनियों को आधार बनाकर चित्रकारों ने सुंदर चित्रों का निर्माण किया। धीरे-धीरे अनेक रागिनियों का प्रचलन समाप्त हो गया, किन्तु उन पर बने चित्र आज भी उनके प्रचलन तथा अस्तित्व के प्रमाण हैं। राग मेघ, वर्षा ऋतु का प्रतीक है। इसका अलाप धीमे से शुरु होकर बारिश की वूंदों की तरह तेज होता है और पूरा वातावरण उत्साह से भर जाता है। लगता है सब नाद के तमाशे हैं। बादल की गरज मृदंग की तरह सुनाई पड़ती है। इस मृदंग की संगत में दामिनियां या कि बिजलियां नृत्य करती हैं बादल को मैस्कुलीन माना गया है और बिजली है फेमिनिन। क्रमशः शक्ति और सौंदर्य की प्रतीक। प्रकृति की इस अद्भुत शक्ति और सौंदर्य के मेल से ही तो आती है वर्षा ऋतु। यहां ताजगी है तो बहक जाने की मद्धिम-सी अपील भी। मूसलाधार बारिश में भीगते हुए कभी आसमान को निहारा है आपने। लगेगा पूरी प्रकृति, पूरा परिवेश बहक गया हो। मानो नृत्य, गीत और संगीत की त्रिवेणी बह रही हो।
किवदंती है कि राग मेघ को जन्म देनेवाले भगवान शिव हैं। तानसेन ने राग मल्हार को एक बार फिर से स्थापित किया। कहते हैं कि वे जव राग मेघ मल्हार गाते थे तो सचमुच वर्षा होती थी। उन्होंने राग मियां का मल्हार की भी स्थापना की। यह नया राग संगीत की नई अभिव्यक्ति है। इस राग को सुनते हुए मुझे इसमें बारिश का ऊर्जावान रूप महसूस होता है। डॉ सुहासिनी घोष मानती हैं कि 'हाल के वर्षों में राग मल्हार को आधार बनाकर कई रागों का जन्म हुआ- गौड़ मल्हार अनूठे रंगों से सजा है तो राग देश, खमाज और बिलावल की बात ही निराली है।' फिर सुरदासी मल्हार के गाने और सुनने का भी अपना अंदाज है। संगीत के महान कलाकार पंडित विनायक राव पटवर्धन जब राग जयंत मल्हार गाते थे, तो ऐसा लगता था मानो 'सुनने वाले और गुनने वाले सभी के मन भीग गए हों।'
सुर का स्रोत असार है। राग और भी हैं, संगीत की दुलिया समृद्ध ही हुई है। यहां से कुछ बिसरा नहीं है। पर प्रख्यात शास्त्रीय गायक पंडित जसराज की बात भी कम पते की नहीं- सुनने वाले हों तो ही कोई मल्हार मन को भिगोता है।
-प्रीतिमा वत्स
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