Monday, October 19, 2020

देवी गीत (Goddess song)

 

आजू रे सुदिन दिन

मैया अएथिन अँगना-2

जौ हम जनिता मैया अएथिन

दुध से निपौती अँगना।

मैया अएथिन अँगना,

महामाया देवी अएथिन अँगना।

आजू रे सुदिन....................।

किए माँ को बईसन दियबै,

किये रे ओठगनवा।

आजू रे सुदिन............।

कलशा माँ को बईसन दियबै,

पिंडी रे ओठगनवा।

आजू रे सुदिन..........

किये माँ को पहिरन दियबै

किये रे ओढनवा,

आजू रे सुदिन......

पटोरी माँ को पहिरन दियबै

चुनरी रे ओढनवा,

आजू रे सुदिन...........

किये माँ को भोजन दियबै

किये रे ओठ रंगना,

खीर माँ को भोजन दियबै

पान रे ओठ रंगना

आजू रे सुदिन ...............

किये माँ के सिंगारी में

किये रे सुमिरनवा।

सिंदूर माँ के सिंगारी में,

चंडी पाठ से सुमिरनवा।

आजु रे सुदिन दिन

मैया अएथिन अँगना।-2

यह एक अँगिका लोक गीत है. इसमें माँ दुर्गा के आगमन से भक्तों में होनेवाली खुशी को दर्शाया गया है-

आज का दिन बहुत हीं शुभ है, आज माँ हमारे आँगन में आनेवाली हैं। यदि हमें पहले से पता होता कि माँ हमारे घर आएँगी तो मैं दूध से अपने आँगन को लीप कर रखती। माँ को कहाँ पर बैठने दूं और टेक लगाने के लिए क्या दूँगी, माँ को कलश का आसन बैठने के लिए और पिंडी टेक लगाने के लिए दूँगी। माँ को क्या पहनने के लिए और क्या ओढ़ने के लिए दूँ। माँ को साड़ी पहनने के लिए और चुनरी ओढ़ने के लिए दूँगी। माँ को भोजन में क्या दूँ और होठों को रंगने के लिए क्या दूँ। माँ को खीर भोजन के लिए और पान होठों को रंगने के लिए दूँगी। किससे माँ का श्रृंगार करूँ और कैसे माँ का सुमिरन करूँ। सिंदूर से माँ का श्रृंगार करूँगी और चंडी पाठ से उनका सुमिरन करूँगी। आज का दिन बहुत हीं शुभ है देवी माँ हमारे आँगन में आ रही हैं।

-प्रीतिमा वत्स

 (फोटोग्राफ- गूगल से साभार)

 

 

 

Saturday, October 10, 2020

विवाह गीत

विवाह गीत


राम जी के मौरिया सुहावन लागे

अति मनभावन लागै हो......

माई हे मैं ना जानूँ

पटेवा के गुथै गुण, राम जी के पहेरै गुण हे....

माई हे मैं ना जानूँ

दशरथ जी के कुल गुण, कौशल्या जी के गर्भ गुण हे......

राम जी के जोड़वा सुहावन लागे,

अति मनभावन लागै हो.....

माई हे मैं ना जानूँ

दरजी के सियै गुण, राम जी के पहेरै गुण हे.....

माई हे मैं ना जानूँ

दशरथ जी के कुल गुण, कौशल्या जी के गर्भ गुण हे..........

राम जी के धोतिया सुहावन लागे,

अति मनभावन लागै हो........

माई है मैं ना जानूँ,

मड़बड़िया के बेचै गुण, राम जी के पहेरै गुण हे.......

माई हे मैं ना जानूँ

दशरथ जी के कुल गुण, कौशल्या जी के गर्भ गुण हे......

राम जी के जूतवा सुहावन लागै

अति मनभावन लागै हो............

माई है मैं ना जानूँ

मोचिया के गढ़ै गुण, राम जी के पहेरै गुण हो....

माई हे मैं ना जानूँ

दशरथ जी के कुल गुण, कौशल्या जी के गर्भ गुण हे......

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यह एक विवाह गीत है। इसे बेटे के विवाह में गाया जाता है। इस गीत में दुल्हा बने राम जी पगड़ी, जोड़ा, धोती, जूते आदि का वर्णन किया गया है। कहा गया है कि राम जी के शरीर पर ये चीजें बहुत ही सुहावन और मनभावन लग रहा है। पता नहीं ये राम जी के पहनने का अंदाज है या बनाने वाले के हाथ की कला का कमाल है। पता नहीं यह दशरथ जी के कुल के संस्कारों के कारण है या कौशल्या जी के गर्भ की महिमा है।

-प्रीतिमा वत्स

(फोटोग्राफ नेट से साभार)

Sunday, June 7, 2020

बनी रहेगी उष्मा जादोपेटियाँ कला की


-प्रीतिमा वत्स
सौन्दर्य से लगाव मनुष्य की एक जन्मजात प्रवृति है। यही कारण है कि मनुष्य के सांस्कृतिक विकास की प्रत्येक कड़ी उसके सौन्दर्य बोध का भी निश्चित रूप से परिचय देती है। सभी जगह मानव समुदाय में चित्रांकन की परंपरा किसी न किसी रूप में रही है। कालक्रम में चित्रकला ने कई रूप ले लिए या फिर कई वर्गों में विभक्त कर दिया- शास्त्रीय कला, लोक कला, आदिवासी कला। शास्त्रीय कला जिसे नागर कला भी कह सकते हैं। यह काफी समृद्ध और संभ्रान्त समाज की अभिव्यक्ति बन गयी। शेष कला यानी लोक कला और आदिवासी कला लोगों के दिमाग की कला कहकर उपेक्षा की जाने लगी।
आदिवासी कला की ताकत तथा जीवनी शक्ति को पहली बार पिकासो तथा यूरोप के कई चित्रकारों ने उजागर किया। पिकासो की चर्चित पेंटिंग ती गीतिकार को जिसने भी देखा उसने यही महसूस किया कि रंगों की भाषा में लोक धड़क रहा है। कलाकार विलियम रूबीन ने भी लोक कला से बहुत लगाव महसूस किया।
अभिव्यक्ति के स्तर पर यह आदिवासी चित्रकला जिन विषयों को अभिव्यक्त करती है वे कहीं से भी कला की दुरूहता को स्थापित नहीं करते, बल्कि वे कला की सहजता की वकालत करते हैं। बाद के भी कई कलाकारों ने यह महसूस किया कि आदिवासी कला साधारण नहीं है। यह कला जटिल धारणाओं की लघुकारक रूप में चित्रात्मक अभिव्यक्ति है। पूरी दुनिया में अफ्रीका के बाद सबसे अधिक आदिवासी भारत में हीं रहते हैं और देश में आदिवासी प्रदेशों में झारखंड तथा बिहार का नाम प्रमुख रूप से आता है। यहाँ सबसे ज्यादा संथाल आबादी रहती है। तमाम विस्थापन और पलायन के बावजूद इनकी जनसंख्या 20 लाख से ऊपर है।संथाल आदिवासियों की एक सुदीर्घ और समृद्ध कला परंपरा है। इनके सांस्कृतिक उपक्रमों,आस्थाओं,मिथकों,अलंकरणों और सज्जाकारी में गजब का मानवीय बोध दिखता है। इन्हीं कलाओं में एक है जादोपेटियाँ चित्रकला। आदिकाल से हीं संथालों की संस्कृति में जादोपेटियाँ चित्रकला का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इस शैली के चित्रकार को समाज में जादौ के नाम से पुकारा जाता है। लोक कला की यह शैली बिहार, उड़ीसा और मध्यप्रदेश में भी पाई जाती है। विभिन्न प्रान्तों में यह पद्धति अलग-अलग नामों जैसे जादू-पट, यम-पट, पटकथा और पटचित्र के नाम से जानी जाती है। चित्रकार पुराने कपड़े और बेल के गोंद की सहायता से पट बनाता है। जिसकी लंबाई 5 से 10 फूट तक होती है। कुछ लोग कागज पर भी इस प्रकार के चित्र बनाते हैं। जादोपेटियाँ चित्रकला में पशु-पक्षियों तथा मनुष्य जीवन के विभिन्न पक्षों का जो चित्रण हुआ है और जो हो रहा है, वह प्रकृति, मनुष्य और पशु के रिश्ते के बारे में बहुत कुछ कहता है। जहाँ तक अभिव्यक्ति के स्तर का प्रश्न है तो इनकी सहजता और प्रवाह महसूस की जा सकती है। अभिव्यक्ति के स्तर पर यह चित्रकला जिन विषयों को अभिव्यक्त करती है वे कहीं से भी कला की दुरूहता को स्थापित नहीं करती, बल्कि वे कला की सहजता की वकालत करते हैं। आदिवासी जीवन में हर व्यक्ति एक विशेष किस्म का कलाकार होता है और इन कलाकारों का जीवन आम लोगों से भिन्न नहीं देखा जा सकता। कला इनके दैनिक जीवन का एक हिस्सा है। सुबह के समय मुर्गे का बोलना, बरसात में मोर का नाचना और सुंदर स्त्री के प्रति पुरूष का सहज ढंग से आकर्षित होना, खेतों में स्त्रियों का काम करना, जंगली फूलों का अपने जूड़े में लगाना, किशोरों का अपने मवेशियों को ले जाना, मछली मारना एवं इस तरह के ढेर सारे स्वाभाविक एवं प्राकृतिक संदर्भ जनजाति चित्रकलाओं में देखने को मिलते हैं।
इन चित्रों में यथासंभव प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है। जला हुआ चावल, आँवला और जामुन की छाल,फूलों, पत्तियों, महुआ, हल्दी आदि को पीसकर रंग तैयार किया जाता है। लोक कला में प्रायः चटख रंगों का प्रयोग किया जाता है। इन चित्रों के विषय- महाभारत, रामायण, कृष्णलीला,सृष्टि का निर्माण, यमराज का दंड आदि होते हैं। इस शैली के चित्रकार जादौ इन चित्रों को लेकर गाँव-गाँव घूमते हैं और लोगों को दिखाते हैं।
अभी भी कहीं-कहीं आदिवासी समाज में जब किसी की मृत्यु हो जाती है तो इन कलाकारों को बुलाया जाता है। ये कलाकार उनके घर जाकर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। लोगों को रामायण, महाभारत की कहानियों के साथ-साथ यह भी बताते हैं कि गलत काम करने पर यमराज कठोरता से दंड देते हैं। परंतु हाल के वर्षों में इनकी माँग नहीं के बराबर रह गई है।
कहते हैं कि लोक परिवेश की उपज होती है लोक कला। परिवेश बदलते हैं तो सहज ढंग से बदल जाती है लोककला। तेजी से भाग रही दुनिया और उपभोक्तावादी संस्कृति के तीव्र विस्फोट के बीच संथालों का परिवेश, उनका समाज और उनकी जीवनशैली भी काफी बदल चुकी है।यह बदलाव उनकी कला में भी दिखाई पड़ता है। पहले जहाँ इन कलाओं में प्राकृतिक रंगो का प्रयोग होता था अब रासायनिक रंगों का प्रयोग बढ़ गया है। रंगों के साथ-साथ रेखाओं का भी गणित बदल गया है। दीवारों तथा कपड़े के पट से उतरकर यह कला अब कैनवास पर सजने लगी है। संथाल परगना के जादौपेटियाँ पर लंबे समय से काम कर रहे चित्रकार देव प्रकाश इस कला को लेकर बहुत उत्साहित हैं। हालांकि वे मानते हैं कि कुछ जादौ अपने पारंपरिक काम को छोड़कर दूसरे पेशे की ओर चले गए हैं लेकिन इसका लाभ भी इस कला को मिला है। देव प्रकाश कहते हैं कि लोक कला में यदि कुछ चीजें जुड़ती हैं तो कुछ छूट भी जाती हैं। रोजगार की तलाश में महानगरों और शहरों में घूम चुके जादौ जब अपने गाँव आते हैं और फिर कभी अपनी पट पर इस कला को उकेरते हैं तो उस कला का रंग कुछ नया होता है। देव प्रकाश इस बात के पक्षधर हैं कि संरक्षण के नाम पर इस कला को सिर्फ संग्रहालय की शोभा ना बनाया जाए।
लेकिन कुछ भी हो जाए लोक की कभी मन नहीं सकती है। यह कला कभी मात्र संग्रहालय की शोभा बनकर नहीं रह सकती है। लोक कला अभिव्यक्ति का ऐसा माध्यम है जो आदि काल से चली आ रही है और अभी भी समाज के हर कोने में किसी न किसी रूप में हमेशा विद्यमान है। यह धरोहर की तरह एक पीढ़ी को दूसरी पीढ़ी से बिना कहे, बिना किसी तामझाम के मिलती रहती है।
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-प्रीतिमा वत्स
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Sunday, March 17, 2019

गंगा नदी का आदि से अनंत तक आस्था का सफर

बॉक्स - सदियों से हर खुशी और गम में शामिल, सुख-दुख की भागीदार बनी चलती रही, पर अब मैं थक गई हूँ। ध्यान लगाकर सुनो तो शायद मेरी आवाज तुम तक पहुँच जाएगी कि बस अब और नहीं, अब और नहीं।

सदियों से तुम्हारे कष्टों को हरती आ रही हूँ, तुम्हें जीवन देती आ रही हूँ । कई बार खुश हुई कई बार बहुत कष्ट उठाना पड़ा। खुशियाँ बाँटती रही, तुम्हारी फैलाई हुई गंदगी को अपने-आप में समेटती रही लेकिन अब मुझे भी तुम्हारी जरूरत है।
कितनी भक्ति के साथ भगीरथ ने मुझे इस धरती पर तुम्हारे कल्याण के लिए बुलाया था। साक्षात शिव ने मुझे हिमालय के पास भेजा। हिमालय ने एक आदर्श पिता की तरह अपने कोमल बाँहों का सहारा देकर मुझे अपनी शरण में लिया। अत्यंत सफेद अमृत के समान जल लेकर मैं बहती हुई धरती पर आई। कई युगों को देखा, कभी खुश हुई कभी मेरा हृदय दग्ध भी हुआ।
अलकनंदा नाम से धरती पर आई, फिर भागीरथी, जब मैं गोमुख से प्रकट हुई तब गंगा कहलाई। गोमुख से कई धाराओं में निकलकर मैं देव प्रयाग में एक हो गई। जब मैं टिहरी पहुँची और तुमने मुझे जबर्दस्ती बाँधने की कोशिश की तब मुझे बहुत तकलीफ हुई, पर्यावरण की रक्षा करने वाले अपने सपूत सुन्दरलाल बहुगुणा को बहुत याद किया। जब मैं यमुना और सरस्वती से मिली तो मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा, वह संगम स्थल प्रयाग कहलाया।
राजा विक्रमादित्य के बड़े भाई, प्रख्यात कवि भर्तृहरि ने जहाँ मेरे तट पर तप किया वह हरि की पौढ़ी कहलाया जो स्वर्ग के सोपान की तरह है। जब मैं कुरू की राजधानी हस्तिनापुर पहुँची, यहाँ राजा शान्तनु और पुत्र भीष्म को स्मरण करती हुई बहुत काल तक बही, किन्तु हस्तिनापुर की दुर्दशा को देखकर ऐसी दुखी हुई कि वहाँ से दूर हो गई और अपनी एक धारा बूढ़ी गंगा से मिलकर गढमुक्तेश्वर पहुँच गई। तत्पश्चात मैं महारानी लक्ष्मीबाई,बीरबाल मनु,जिसने राष्ट्र की रक्षा के लिए सैन्य संचालन करते हुए अपने प्राण अर्पण कर दिये थे उन्हें अपने आँचल में समेटने के लिए मैं बिठूर आई। निरंतर कारखानों के निकलने वाले कूड़े-कचरे से भरे हुए धन से पूर्ण परंतु शोभाहीन कानपूर शहर आकर मैं बहुत दुखी हुई। चमड़े की गंध और गंदगी जब बर्दाश्त नहीं हुई तो अपनी वेदना को व्यक्त करने प्रयाग चली गई। पुष्यमित्र शुंग ने जब यहाँ यज्ञ किया तब जाकर यह तीरथ प्रयाग कहलाया था।
जब मैं आह्लादित होकर यमुना से मिलने जा रही थी, तभी सरस्वती भी गुप्त रूप से वहाँ आ पहुँची और हम तीनों का मिलन संगम कहलाया। अनेक धाराओं का यह मिलन स्थल एक ओर जहाँ भारतीय एकता को पुष्ट करता है वहीं दूसरी ओर त्रिवेणी तट अनेक संस्कृतियों का संगम राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता का संवाहक है। माघ के महीने में मकर संक्रांति के पवित्र अवसर पर संगम में हर बारह वर्ष में कुम्भ और छह वर्ष में अर्धकुम्भ पर्व के अवसर पर मानवों का विशाल संगम होता है जो मुझे अत्यंत प्रिय है। यहाँ एक ओर वेद का ज्ञानमय स्वर सुनाई देता है तो दूसरी ओर द्वैत-अद्वैत के सिद्धान्तों पर चर्चा होती है। कहीं कृष्ण भक्ति शाखा का मिलन रामभक्ति शाखा के साथ होता है। बुद्धं शरणं गच्छामि का उद्धोष तथा अहिंसावादी जैनों की कोमल वाणी, सिक्खों की गुरूवाणी और पैगम्बर मुहम्मद का वचन सभी का संगम इस तीर्थ में है। जब मैं शिव की नगरी काशी पहुँची तो भक्ति से ओत-प्रोत हो गई। शिव ने अपने त्रिशुल का सहारा दिया और मेरा वेग धीमा हुआ। वहाँ से मैं शिवाला घाट पहुँची, जहाँ श्मशान में अत्यंत गोपनीय शव साधना में लगे, अपनी लहरों से दीर्घकाल तक नहलाये जाते हुए किनाराम नामक अवधूत अघोरी के देखती रही, जिन्होंने प्रमादी राजा चेतसिंह को भ्रष्टराज्य होने का शाप दिया था। चेतसिंह अंग्रेजों के द्वारा पराजित हुआ और महल छोड़कर भाग खड़ा हुआ। सचमुच नरसंहार का बड़ा भयानक दृश्य था वह। शिवाला से हनुमान घाट गई जहाँ थोड़ी शांति मिली तो मणिकर्णिका के तट पर मोक्षदायिनी बनकर पहुँची। यहीं पर सत्यनिष्ठ, प्रतापी, पवित्र, धार्मिक, दानशील राजा हरिश्चन्द्र ने चाण्डाल कर्म स्वीकार किया था। इसके बाद मैं केदार घाट पर पहुँची। इस तट पर स्थित भगवान शिव का मंदिर काफी ऊँचाई पर है और मैं नीचे से सिर्फ निहार सकती हूँ उन्हें। शायद यह इस पृथ्वी पर प्रीति की रीति है। अतः गौरीकुण्ड में अपने प्रीतिदायक जल को छोड़कर आगे बढ़ जाती हूँ और कई घाटों को पार करती हुई पंचगंगा घाट पहुँचती हूँ यहाँ पर धूतपापा, किरणा, गंगा, जमुना,सरस्वती पाँच धाराओं का संगम स्थल है। उसके बाद गायघाट, प्रह्लादघाट, ओंकारेश्वर, कालेश्वर, भूतभारेश्वर आदि अनेक शिवलिंगों के दर्शन करती हुई राजघाट पहुँचती हूँ। यहीं पर स्थित गाँधी संस्थान को स्मृति चिह्न के रूप में देखती हुई सोचती हूँ कि स्वतंत्रता के लिए सोचनेवाले उस महात्मा का क्या भारतीय आज उचित आदर कर रहे हैं? पहले जहाँ इस तट पर आकर मैं गर्व से भर जाती थी वहीं आज कीचड़ से भरी लुप्त शरीर वाली, संगम स्थल में गन्दगी फैलाती वरणा को देखकर आज के भोग विलासी साक्षर राक्षसों को बार-बार छोड़ देने का मन करता है। वहाँ से चलकर जब मैं गाजीपुर पहुँचती हूँ तो गंगी नाम की एक छोटी सी नदी मेरा स्वागत करती है और मुझमें मिलकर अपने आप को धन्य समझती है। कर्मनाशा जैसी अमंगलकारी को भी अपने-आप में मिलाकर निर्मल बना देती हूँ। बिहार के मैदानी इलाकों को, वहाँ पर फैली हरियाली को देखकर मन खुश हो जाता है। जहाँ ज्ञान प्राप्त होने से गौतम बुद्ध हो गए, जहाँ महावीर तीर्थंकर ने जन्म लिया, गुरू गोविन्द सिंह ने जन्म लिया, अनेकों प्रतापी राजाओं ने राज्य किया। सोन, घाघरा आदि कई नदियों को अपने आप में समेटती हुई मैं पाटलिपुत्र पहुँची। यहाँ के क्रूर और विद्रोही राजा अजात-शत्रु को देखकर बहुत दुखी हुई मैं। जिसने अपने पिता बिम्बिसार को कारागार में डाल दिया था, लेकिन अजात-शत्रु का पुत्र उदयभद्र बड़ा ही दयालु राजा था। उसी ने पाटलिपुत्र नाम के खूबसूरत शहर को बसाया और अपनी राजधानी बनाई। यहीं पर मैंने अशोक महान को भिक्षु अशोक बनते हुए भी देखा। विक्रमादित्य के सुन्दर शासनकाल को भी देखा और हूंणों के आक्रमण से परेशान कार्तिकेय के शासनकाल को भी। कार्तिकेय और स्कंद गुप्त जैसे सपूतों को आज भी याद करती हैं मेरी धाराएँ। बाद में शेरशाह ने इस राज्य का नाम बदल कर पटना रख दिया। वहाँ से गया होते हुए फल्गु और पुनपुन को साथ लेती हुई वैशाली गणराज्य पहुँचती हूँ। नालंदा विश्वविद्यालय के विनाश की साक्षी भी तो मैं हीं हूँ। वहाँ से चलकर मैं गिरिव्रज पहूँची, जो आजकल राजगीर के नाम से जाना जाता है। मगध राजाओं की यह राजधानी आज भी पुरातत्ववेत्ताओं और दर्शकों के द्वारा देखी जाती है। खण्डहरों में स्थित वह आज भी अपने अतीत के गौरव गाथा को कहती हुई सी नजर आती है। दूर से ही दरभंगा को देखकर, मिथिला को प्रणाम करती हुई जब मैं अंगदेश में प्रवेश करती हूँ तो मुंगेर जिले में बूढ़ी गंडक मेरा स्वागत करती हुई सी लगती हैं और मुझमें समाहित हो जाती है। यहाँ जह्नु ऋषि के आश्रम को देखकर खुश हो जाती हूँ, यहीं पर मेरा नाम जाह्नवी पड़ा था। अपने पिता के घर में थोड़ी देर विश्राम कर फिर आगे बढ़ जाती हूँ। आगे बढ़कर भागलपुर नामक शहर में जाती हूँ, जो खानों से युक्त, धन से उन्नत, सुख-सुविधा सम्पन्न और उद्योग के कल-कारखानों से युक्त है। यहाँ पर ताण्डव मचाती हुई कोसी नदी को अपने आप में समा लेती हूँ और आगे बढ़ जाती हूँ राजमहल की पहाड़ियों से होते हुए मैं बंगाल में प्रवेश कर जाती हूँ और सागर को देखकर मिलन के लिए अपने-आप को रोक नहीं पाती और सागर में समा जाती हूँ। उपहार के रूप में सागर को उपजाऊ मिट्टी ला लाकर देती रहती हूँ जिससे कि एक प्यारे से डेल्टा का जन्म हुआ है जो सुन्दरवन कहलाता है।
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Monday, March 4, 2019

तुम फेंको एक कदम्ब का फूल

आज के बदलते परिवेश में जब हम अपनी परंपरा, साहित्य या संस्कृति की बात करते हैं तो लोकजगत हमें अपनी ओर खींचता है। और यदि हमआदिवासी लोक में झाँकें तो हमें यह खिंचाव कुछ ज्यादा हीं अपनेपन की उष्मा से भरा मिलता है।
संताल जनजाति का कोई लिखित इतिहास नहीं है पर इनके बीच प्रचलित रीति-रिवाजों, लोक मान्यताओं और साहित्य में परंपरागत ढंग से इनके ऐतिहासिक तथ्य सुरक्षित हैं। संताल जनजाति मुख्य रूप से झारखंड की प्रमुख जनजातियों में एक है। वैसे ये बिहार, पश्चिम बंगाल,उड़ीसा,असम,मेघालय और पड़ोसी देश नेपाल के कुछ हिस्सों में आबाद हैं।
जीविकोपार्जन के विकल्प तलाशने और शहर की तरफ रुख करने की वजह से इनके दैनिक जीवन में काफी बदलाव आया है। लेकिन इस समाज में परंपरा का प्रवाह आज भी अपनी मौलिक ऊर्जा के साथ हीं विद्यमान है। संताली लोक समाज लड़कियों की शादी से विदाई को लेकर बहुत ही ज्यादा संवेदनशील और परंपरावादी होते हैं।
"पिताजी!
हो रहा है उदित
सुबह की स्वर्णिम सूर्य।
जाना है कितनी दूर आपको
चढ़ाने तिलक मेरे दूल्हे को?"
"नहीं है बहुत दूर बेटी
पहुँच जाएँगे हम
दुपहर तक,
अयोध्या गढ़ ही तो जाना है हमें।"
आज भी संताली समाज में नारियों का सम्मान उनका सबसे बड़ा उत्तरदायित्व होता है। गरीबी में जिंदगी जीते हैं, चाहे आधे तन पर ही कपड़ा पहनते हैं पर कभी किसी नारी का अपमान नहीं होने देते हैं अपने इलाके में। परंपरागत तरीके से अपनी बेटी के लिए दूल्हा तलाश करना, सम्मान के साथ उनकी विदाई करना वे अपना कर्तव्य समझते हैं।
"मना करता आ रहा हूँ
बहुत दिनों से मैं,
पर मानती नहीं हो
कि पहना मत करो इतनी लंबी साड़ी तुम,
जो लोटती है
पैर के तलवे तक तुम्हारे!"
"क्यों नहीं पहनूँगी साड़ी मैं
जो लोटती है
पैर के तलवा तक
बुना है इसे पिताजी ने मेरे
मेरी माँ के
काते हुए धागों से!"
अपूर्व प्राकृतिक सम्पदा के बीच भी बेहद कठिन जीवन जीने वाले  संतालों को गीत-संगीत विरासत में मिले हैं। तभी तो इनके बीच यह कहावत प्रचलित है कि "रोड़ाक् गी राड़ाक, ताड़ामाक् गी हिलावाक्।" अर्थात् हमारी वाणी ही संगीत है और हमारी चाल ही नृत्य है।
गली की अंतिम छोर में
है एक वट वृक्ष,
डाल से उसकी
जड़ तो फूटा,
पर निकला नहीं
कोपल निकलते-निकलते।
गाँव के युवक भी
कुछ इसी तरह-
करते तो हैं प्रेम
पर रख नहीं पाते
कसमें खाने के बाद!
संताली जनजातियों में विवाह एक बहुत हीं महत्वपूर्ण सामाजिक प्रथा है, इनमें समगोत्रीय विवाह वर्जित है तथा ममेरी या फुफेरी बहनों के साथ भी विवाह की मनाही है, जबकि उरांव, मुण्डा या हो जनजातियों में ऐसी वर्जना नहीं है। इसलिए कई बार विवाह लड़की की पसंद के खिलाफ भी हो जाता है जिसे नियति मानकर कुबूल करना ही पड़ता है-
हो रहा है-
स्वर्णिम सूर्योदय,
और चढ़ रही हूँ मैं
सुहाग-डलिया पर
सिंदुर-दान के लिए।
यदि है ममता मेरे लिए
दिल में तुम्हारे,
तो फेंको मुझपर
-कदम्ब का एक फूल!
समझूँगी तभी मैं
कि किया था तुमने कभी प्यार मुझसे!
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-प्रीतिमा वत्स
(गीत ''सोने की सिकड़ी रूपा की नथिया" नामक किताब से लिया गया है।)

Aangan me Tulsi Chaura (एंगना मॅ तुलसी चौरा)

दुनिया के सब आपाधापी सॅ थकी क जबS दिन दुपहरिया घोर जाय छेलियै त एंगना मॅ तुलसी के लहलहैलो पौधा देखी क जी जुड़ाय जाय छेलै। जहिया सॅ महानगर ...