Friday, June 22, 2018

मधुबनी कला, कल और आज


कभी बिहार के दरभंगा, मधुबनी और नेपाल के कुछ हिस्सों की कच्ची दीवारों पर बनने वाली मधुबनी कला आज अपने देश के हर कोने-कोने में फैल चुका है। अपने देश ही नहीं विदेशों में भी इस कला ने पूरे सम्मान के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करा ली है।
मधुबनी कला में पहले जहाँ सिर्फ कच्चे रंगों और पीसे हुए चावल का इस्तेमाल होता था वहीं अब यह रंग के हर एक फार्म में देखने को मिलता है। चाहे वह जलरंग हो, एक्रीलिक हो, ग्लास रंग हो या तैल रंग। बहुत पहले ही दीवारों से उतरकर यह कला सजावट के सामानों, बर्तनों से लेकर परिधानों और कुशन,चादर से लेकर कालीन तक पर फैल चुका है।
मधुबनी कला के इस विस्तार का कारण है उसका उत्सवधर्मी होना। चटख रंगों में बनाया जानेवाला मधुबनी कला अपने-आप में एक रोमांचर इतिहास समेटे हुए है। कहते हैं राजा जनक ने अपनी पुत्रियों के विवाह में नगर की औरतों से महल की दीवारों पर खूब कलाकारी करवाई थी, जो प्राकृतिक रंग और अरिपन से बने हुए थे। इन चित्रों में घोड़े, हाथी, कहार, विवाह की वेदी, मंडप, वर-वधु, चिड़ियाँ, मोर, देवी-देवता आदि बनाए गए थे।यह एक खास शैली में बनाई गई थी।जो बाद में चलकर मधुबनी कला के नाम से विख्यात हुई।
प्रारंभिक चरण में मधुबनी कला सिर्फ उच्च कुल की महिलाएँ ही बनाती थीं, लेकिन धीरे-धीरे यह कला इतनी लोकप्रिय हो गई कि जाति,धर्म और स्थान की सीमाओं को लाँघती चली गई।
कई पड़ावों से गुजरने के बाद इसके पारंपरिक आकारों में थोड़ी भिन्नता तो आई है परंतु अभी भी अपने सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ फूल-फल रही है और लोगों के आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है।
-प्रीतिमा वत्स

Aangan me Tulsi Chaura (एंगना मॅ तुलसी चौरा)

दुनिया के सब आपाधापी सॅ थकी क जबS दिन दुपहरिया घोर जाय छेलियै त एंगना मॅ तुलसी के लहलहैलो पौधा देखी क जी जुड़ाय जाय छेलै। जहिया सॅ महानगर ...