Friday, June 13, 2008

आस्था विश्वास का केंद्र बैद्यनाथ धाम


विश्वकर्मा द्वारा निर्मित द्वादश ज्योतिर्लिंगों में एक बैद्यनाथ धाम जहाँ एक ओर श्रद्धा और भक्ति का केन्द्र बना हुआ है वहीं दूसरी ओर इससे असंख्य लोगों को रोजगार भी मिलता है।

द्वादश ज्योर्तिलिंगों में एक देवघर स्थित बैद्यनाथ धाम न सिर्फ बिहार और झारखंड, बल्कि पूरे देश का एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल माना जाता है। शिव पुराण के अनुसार भगवान शंकर समस्त प्राणियों के कल्याण हेतु विभिन्न तीर्थ स्थलों में लिंग रूप में निवास करते हैं। बैद्यनाथ शिवलिंग की महत्ता मनोकामना लिंग के रूप में भी है। पद्मपुराण के अनुसार बैद्यनाथ महालिंग की महत्ता भवरोगों को हरनेवाला तथा कल्याणकारी है - 'बैद्यनाथ महालिंग भवरोग हर शिवम'। बैद्यनाथ मंदिर परिसर में कुल 22 मंदिर हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार इन मंदिरों का निर्माण विश्वकर्मा के द्वारा किया गया है। यहां के शिव मंदिर की ऊँचाई 72 फीट है तथा सम्पूर्ण मंदिर एक ही चट्टान का बना हुआ है। कहते हैं कि काशी और बैद्यनाथधाम में स्वयं भगवान् शंकर मुक्ति देते हैं और जो भी इनका दर्शन करने आते हैं, वे सभी मुक्त हो जाते हैं।
बैद्यनाथ महादेव की प्रसिद्धि रावणेश्वर बैद्यनाथ के नाम से भी है। पौराणिक कथा के अनुसार बैद्यनाथ महालिंग की स्थापना लंकापति रावण के द्वारा की गयी है। एक बार रावण ने अपनी तपस्या से भगवान शंकर को अति प्रसन्न कर लिया। भगवान शंकर ने उसे वर मांगने के लिए कहा- रावण ने अपनी इच्छा जताई कि मैं आपका शिवलिंग अपनी नगरी में स्थापित करना चाहता हूं। शिवजी सोच में पड़ गए, थोड़ी देर बाद बोले ठीक है लेकिन शर्त यह है कि तुम उसे रास्ते में कहीं मत रखना नहीं तो मैं वहीं स्थापित हो जाऊँगा। रावण शिवलिंग को लेकर कैलाशपुरी से लंकापुरी की ओर चल पड़ा इधर देवलोक में खलबली मच गयी कि यदि रावण लंका में शिवलिंग स्थापित करने में सफल हो जाएगा तो अमरत्व को प्राप्त कर लेगा।
अतः देवताओं ने आपस में मिलकर मंत्रणा की। दैवयोग से रावण को जोरों की लघुशंका लगी। विवश होकर उसे शिवलिंग को एक वृद्ध ब्राह्मण के हाथों में थमाकर लघुशंका से निवृत होने के लिए जाना पड़ा। वह वृद्ध ब्राह्मण और कोई नहीं छद्मवेषधारी स्वयं भगवान विष्णु थे। रावण की लघुशंका से नदी बहने लगी लेकिन उसकी लघुशंका समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रही थी। ब्राह्मण वेषधारी भगवान विष्णु ने मौका पाकर शिवलिंग को वहाँ रख दिया और चलते बने।
बाद में रावण ने बहुत प्रयास किया भगवान से अनुनय-विनय किया, पर शिवलिंग टस से मस नहीं हुआ। गुस्से में आकर उसने शिवलिंग पर प्रहार भी किया जिससे शिवलिंग थोड़ा सा टूट गया, वह निशान आज भी मौजूद है। अंत में हारकर रावण को उस स्थान पर ही शिवलिंग की पूजा करनी पड़ी। बाद में बैजू नामक एक आदिवासी ने उस शिवलिंग की भक्ति-आराधना की और उसके नाम पर उस स्थान को बैजूनाथ अर्थात बैद्यनाथ कहा जाने लगा। जिसकी प्रसिद्घि कालांतर में बैद्यनाथधाम के रूप में हुई।
बैद्यनाथ धाम को हार्दपीठ भी कहा जाता है, और उसकी मान्यता शक्तिपीठ के रूप में है। धार्मिक कथा के अनुसार जब राजा दक्ष ने अपने यज्ञ में शिव को आमंत्रित नहीं किया, तो सती बिना शिव की अनुमति लिए मायके पहुँच गयीं और पिता द्वारा शिव का अपमान किये जाने के कारण उन्होंने मृत्यु का वरण कर लिया। सती की मृत्यु की सूचना पाकर शिव उनमत्त हो उठे और उनके शव को कंधे पर लेकर इधर-उधर घुमने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर उन्मत्त शिव को शांत करने के लिए विष्णु भगवान अपने सुदर्शन चक्र से सती के मृत शरीर के खंडित करने लगे। सती के अंग कट-कटकर जिन स्थानों पर गिरे, वे स्थान शक्तिपीठ कहलाए। सती का खंडित हृदय जिस स्थान पर गिरा, वहीं बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग स्थापित है और वह स्थान हार्दपीठ कहलाता है।
ऐसी लोकमान्यता है कि श्रावण के महीने में साक्षात् भगवान शंकर गौरा पार्वती के साथ बाबा बैद्यनाथ के रूप में देवघर में विद्यमान रहते हैं और भक्तों की मनोकामनाएँ पूरी करते हैं। बाबा बैद्यनाथ को उत्तरवाहिनी गंगा का जल अत्यंत प्रिय है। अतः श्रावण के महीने में प्रतिदिन बड़ी संख्या में श्रद्धालु भक्तगण सुलतानगंज से जल लेकर कांवर में रखते हैं तथा कांवर को कंधे पर उठाकर लगभग 80 किलोमीटर की यात्रा तीन से चार दिन में पैदल तय करते हैं। कई ऐसे भी भक्तगण हैं जो यह यात्रा 24 घंटों के अंदर दौड़कर तय करते हैं तथा इसे देवघर स्थित बैद्यनाथ महालिंग पर अर्पित करते हैं और अपनी मनोकामनाएँ पूर्ण होने की प्रार्थनाएँ करते हैं।
बैद्यनाथ मंदिर का दरवाजा प्रातः 4 बजे खुलता है तथा 3.30 बजे शाम को भगवान के विश्राम हेतु बंद होता है। शाम के 6 बजे प्रार्थना की शुरूआत की जाती है साथ हीं श्रृंगार पूजा की तैयारी भी शुरू की जाती है। अंतिम प्रार्थना का समय 9 बजे रात रखा गया है लेकिन विशेष त्योहारों के मौके पर पूजा की अवधि बढ़ाई भी जाती है। हाल के वर्षों में बैद्यनाथ महालिंग का आकार बहुत छोटा हो गया था, जिससे भीड़ में भक्तों को पूजा करने में काफी परेशानी होती थी इसलिये बगल में एक अन्य लिंग की भी स्थापना की गई है।
श्रावण के महीने में सुलतानगंज से लेकर देवघर तक का रास्ता भक्तों की आवाजाही और भोले बैद्यनाथ की जय, बोलबम आदि के नारों से गुंजायमान रहता है। और यह पूरा क्षेत्र एक विशाल मेले के रूप में तब्दील हो जाता है। सरकार भी इस भीड़ की सुरक्षा एवं सुविधा के लिए तत्पर रहती है। कई स्वयंसेवी धर्मशालाएँ भी कांवरियों के लिए भोजन-पानी,रात को ठहरने की व्यवस्था में जुटी रहती है। इसके अलावा व्यवसायियों की तो चांदी रहती है। इतने विस्तार में एक माह तक चलने वाला यह श्रावणी मेला शायद विश्व का सबसे बड़ा मेला है।

-प्रीतिमा वत्स

4 comments:

  1. aap likhati hai to aacha lagta hai. ase hi or jankari deti rahiye.please aap apna word verification hata le taki humko tipni dene mei aasani ho.

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  2. बहुत अच्छा लिखा है. अभी मार्च में गया था बैद्यनाथ धाम. सब यादें ताजा हैं.

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  3. aapkee kalaa se milnaa sukhad lagaa

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  4. kalakar ke nate main aap kee lokkala se prabhavit hua n rh ska.

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