मार्गशीर्ष के कृष्ण
पक्ष की अष्टमी तिथि को कालभैरव अष्टमी कहा जाता है। कालभैरव जी के जन्मदिवस के रूप में यह तिथि मनाई जाती है। देवताओं की
तरह पूजे जानेवाले कालभैरव जी रुद्र के गण हैं, इनकी प्रकृति अत्यंत उग्र तथा
क्रोधी है। इनका वाहन कुत्ता है तथा इनके हाथ में त्रिशूल, खड्ग तथा दण्ड रहता है।
ये यात्रा तथा युद्धभूमि में सदा उपस्थित रहते हैं। इसलिए आदमी अपने वाहन खरीदने
पर भी इनकी पूजा करते हैं। इनका एक नाम दंडपाणि भी है। शैव मतानुयायियों में भैरव-पूजा
का विशेष महत्व माना जाता है। किसी शुभ कार्य में विघ्नों के विनाश तथा रोग-दोष की
शान्ति के लिए भैरव का व्रत किया जाता है। कालभैरव के कई अवतार माने जाते हैं,
काशी में काल भैरव, बटुक भैरव, आनन्द भैरव, आश भैरव आदि। काशी, मथुरा, दिल्ली, उज्जैन सहित करीब-करीब पूरे देश में इनके मंदिर बने हुए हैं, जहाँ लोग
श्रद्धा पूर्वक इतवार और मंगल के दिन जाते हैं और पूजा अर्चना करते हैं। अपने नए
सफर की शुरूआत करनी हो या वाहन पूजा करनी हो अथवा शरीर से किसी प्रकार के जहर का
शमन कराना हो, लोग इनकी पूजा जरूर करते हैं।
काल भैरव अष्टमी पर लोक में एक कथा भी
प्रचलित है- एक बार ब्रह्मा जी, विष्णु भगवान, शंकर जी तथा इन्द्र भगवान में
परस्पर यह स्पर्धा हुई कि इनमें कौन श्रेष्ठ है। सबलोग अपने को दूसरे से बढ़कर
बताने को तुले हुए थे। यही नहीं ब्रह्मा जी शिव की तथा शिव जी ब्रह्मा की निन्दा
करने लगे। शिव जी ब्रह्मा की अपमानजनक बातें सुनकर बहुत क्रुद्ध हो गए। उन्होंने
कालभैरव को पैदा किया और उन्हें आज्ञा दी कि ब्रह्मा का एक मुख काट डालो। भैरव ने
वैसा ही किया। पंचमुख ब्रह्मा का एक मुख काटकर उन्हें चतुर्मुख बना दिया। ऐसा माना
जाता है कि तभी से सभी देवी-देवता भैरव जी से डरते हैं। ये केवल शंकर जी के
आज्ञाकारी गण माने जाते हैं। क्रोधी होते हुए भी ये अपने भक्तों की पुकार तुरत
सुनते हैं, तथा शुभ फलदायी होते हैं।
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-प्रीतिमा वत्स